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किन्तु एक शर्त यह है कि ये सब अर्हद-उपासनाकी तल्लीनतासे उद्भूत हुए होने चाहिये ।
( 'जय वीतराय' सूत्र ) के
इसके पश्चात् 'पणिहाण - सुत्त' पाठद्वारा हृदयकी शुभ भावनाओं को किया जाता है और अन्तमें 'चेइयवंदण - वृत्त' ( 'अरिहंत चेइयाणं' सूत्र ) द्वारा अर्हच्चैत्योंका आलम्बन स्वीकृत करके कायोत्सर्ग किया जाता है । चैत्यवन्दन की अन्तिम सिद्धि कायोत्सर्ग और ध्यानद्वारा ही होती है, यह बतलानेके लिये उसका क्रम अन्तिम रखा है । यह कायोत्सर्ग श्रद्धा, मेधा, धृति, धारणा और अनुप्रेक्षा - पूर्वक करना चाहिये, इस बातका सूचन सूत्रके मूल पाठमें ही किया हुआ है ।
इस कायोत्सर्ग-ध्यानकी पूर्णाहुति नमुक्कार ( नमस्कार - मन्त्र ) के प्रथम पदके उच्चारणद्वारा को जाती है और चैत्यवन्दनकी पूर्णाहुति अन्त्य मङ्गलरूप अधिकृत जिनस्तुति अथवा 'कल्याणकंदं थुई ' की पञ्चजिनस्तुतिरूप प्रथम गाथा बोलकर, खमासमण प्रणिपात - की वन्दनापूर्वक की जाती है ।
श्रीजिनेश्वर के गणों का बारबार रटन करने से उनकी प्राप्ति के लिये उत्साह बढ़ता है, चित्त में प्रसन्नता प्रकट होती है और तदर्थं योग्य पुरुषार्थ के बलका अनुभव होता है ।
शास्त्रोंमें कहे अनुसार श्रावकको कम-से-कम प्रातः, मध्याह्न और सायं इस तरह तीन बार चैत्यवन्दन करना चाहिये ।
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