Book Title: Panchpratikramansutra tatha Navsmaran
Author(s): Jain Sahitya Vikas Mandal Vileparle Mumbai
Publisher: Jain Sahitya Vikas Mandal

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Page 610
________________ ५९३ क्रोधे क्रोड पूरवतj, संजम फल जाय । क्रोध सहित तप जे करे, ते तो लेखे न थाय ॥२॥ साधु घणो तपीओ हतो, धरतो मन वैराग । शिष्यना क्रोध थको थयो, चण्डकोसियो नाग ॥ ३ ॥ आग उठे जे घरथको, ते पहेलं घर बाळे । जलनो जोग जो नवि मले, तो पासेनुं परजाळे ॥ ४ ॥ क्रोध तणो गति एहवी, कहे केवलनाणी। हाणि करे जे हेतनी, जाळवजो एम जाणी ॥ ५ ॥ उदयरतन कहे क्रोधने, काढजों गले साही । काया करजो निर्मली, उपशम रसे नाही ॥ ६ ॥ (२) मानके विषयमें रे जीव ! मान न कीजिए, माने विनय न आवे रे ! विनय विना विद्या नहि, तो किम समकित पावे रे ? ॥ १ ॥ लकित विण चारित्र नहि, चारित्र विण नहि मुक्ति रे। मुक्तिनां सुख छे शाश्वतां, तो किम लहीए जुक्ति रे॥२॥ विनय बड़ो संसारमां, गुणमा अधिकारी रे। माने गुण जाये गली, प्राणी जो जो विचारी रे ॥ ३ ॥ मान कयुं जो रावणे, तो ते रामे मार्यो रे। दुर्योधन गर्वे करी, अन्ते सवि हार्यो रे ॥ ४ ॥ सूकां लाकडां सारीखो, दुःखदायी ए खोटो रे। उदयरत्न कहे . मानने, देजो देशवटो रे।।५।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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