Book Title: Panchpratikramansutra tatha Navsmaran
Author(s): Jain Sahitya Vikas Mandal Vileparle Mumbai
Publisher: Jain Sahitya Vikas Mandal

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Page 626
________________ ६०९ (११) यथाशक्ति दानादि प्रवृत्ति करे। (१२) विधिका जानकार बने । (१३) अरक्तद्विष्ट-राग-द्वेष न करे । (१४) मध्यस्थ-कदाग्रह-हठ न रखे । (१५) असम्बद्ध-धन, स्वजन आदिमें भावप्रतिबन्ध-रहित रहे। (१६) परार्थकामोपभोगी-दूसरेके आग्रहसे शब्द, रूप, गन्ध, रस और स्पर्शका उपभोग करे। (१७) निरासक्त भावसे गृहवास पालनेवाला बने । ( ३१ ) श्रावकके प्रतिदिन धारने योग्य १४ नियम "सचित्त-दव्व-विगई-वाणह-तंबोल-वत्थ-कुसुमेसु । वाहण-सयण-विलेवण-बंभ-दिसि-ण्हाण-भत्तेसु ॥" १ सचित्त-नियम-श्रावक को मुख्य वृत्तिसे सचित्तका त्यागी होना चाहिये, तथापि वैसा न बन सके तो वहाँ सचित्तका परिणाम निश्चित करना कि इतने संचित्त द्रव्यों से अधिक मुझे त्याग है। अचित्त वस्तु वापरनेसे चार प्रकारके लाभ होते हैं--(१) सर्व सचित्तका त्याग होता है, (२) रसनेन्द्रिय वशमें हो जाती हैं, (३) कामचेष्टाकी शान्ति होती है और (४) जीवोंकी हिंसासे बच सकते हैं। २ द्रव्य-नियम-(दव्व)-आजके दिन मैं इतने 'द्रव्योंसे' अधिक उपयोगमें न लूँगा, ऐसा नियम लेनेको 'द्रव्य नियम' कहते हैं। यहाँ 'द्रव्य' शब्दसे परिणामके अन्तरवाली वस्तु ग्रहण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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