Book Title: Panchpratikramansutra tatha Navsmaran
Author(s): Jain Sahitya Vikas Mandal Vileparle Mumbai
Publisher: Jain Sahitya Vikas Mandal

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Page 635
________________ ६१८ पृष्ठ पंक्ति २४९ १४ भशुद्ध अन्तरिक्षपार्श्वनाथ २५० ३ करानेवाले हैं, १८ शुद्ध अन्तरिक्षपार्श्वनाथ वरकाणा पार्श्वनाथ करानेवाले हैं, तथा जो बाह्य एवं अभ्यतंर तप में उद्यत हैं, विहरमाण भंते करेमि श्रमण महामुणोणं सागारी दूसरेके मूल जिण-पन्नत्तं पच्चक्खाण । उक्खित्तविवेगेणं ससित्थेण अनाभोग प्रत्ययाकार पारिष्ठापनिकाकार महत्तराकार जिस प्रत्याख्यान में गणैस्तेषां विस्मयाहृत देनेवाली २८८ विरहमाण १८ मंते २५१ करोमि २५६ ३ श्रवण २५७ १८. महामुणिणं २६० सागरी २६४ दूसरेको २६६ १२ मल २६७ ११ जिन-पन्नत्तं २७४३ डॅपच्चक्खाण। २३ अक्खित्तविवेगेणं २८० १९ ससित्वेण २३ अनभोग २८२ १४ प्रत्याकार पारिष्टापनिकार महत्ताकार २८९ १६ प्रत्याख्यानमै २९२ ४ गणस्तेषां २२ निस्मयाहृत २९९ ५ देनेवाला m Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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