Book Title: Panchpratikramansutra tatha Navsmaran
Author(s): Jain Sahitya Vikas Mandal Vileparle Mumbai
Publisher: Jain Sahitya Vikas Mandal

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Page 614
________________ ५९७ हय-गय- रथ सब सागर गल्युं, गयो सातमी नरक मोझार रे ! मद आठ० ॥ ९ ॥ इम तन-धन - जोबन राज्यनो, न करो मनमां अहंकारो रे ! ए अथिर असत्य सवि कारमुं विणसे बहु वारो रे ! मद आठ० || १० ॥ मद आठ निवारो व्रतधारी, पालो संयम सुखकारी रे ! कहे मानविजय ते पामशे, अविचल पदवी नरनारी रे ! मद आठ० ॥। ११ ॥ ( २७ ) छन्द तथा पद ( १ ) कलश ( छप्पय ) नित जपिये नवकार, सार सम्पति सुखदायक, सिद्ध मन्त्र ए शाश्वतो, एम जल्पे श्रीजगनायक । श्रीअरिहन्त सुसिद्ध, शुद्ध आचार्य भणीजे, श्रोउवज्झाय सुसाधु, पञ्च परमेष्ठी थुणीजे । कुसललाभ वाचक कहे, नवकार सार संसार छे, एक चित्ते आराधतां, विविध ऋद्धि वंछित लहे, ॥ १ ॥ ( २ ) श्रीनमस्कार - माहात्म्य समरो मन्त्र भलो नवकार, ए छे चौद पूरवनो सार । एना महिमानो नहि पार, एनो अर्थ अनन्त उदार ॥ समरो मन्त्र ।। १ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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