Book Title: Panchpratikramansutra tatha Navsmaran
Author(s): Jain Sahitya Vikas Mandal Vileparle Mumbai
Publisher: Jain Sahitya Vikas Mandal
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६०१
-शीलवती नामे शीलव्रतधारिणो, त्रिविधे तेहने वंदीए ए। नाम जपन्ता पातक जाए, दरिसण दुरित निकंदीए ए॥
आदि० ॥ १४॥ निषधा नगरी नलह नरिंदनी, दमयन्ती तस गेहनी ए। सङ्कट पडतां शियल ज राख्यु, त्रिभुवन कीर्ति जेहनी ए॥
आदि० ॥ १५॥ अनङ्ग-अजिता जग-जन-पूजिता, पुष्पचूला ने प्रभावती ए। विश्व-विख्याता कामित-दाता, सोलमी सती पद्मावती ए।।
आदि० ॥ १६ ॥ वीरे भाखी शास्त्रे साखी, उदयरत्न भाखे मुद्दाए । वहाणुं वातां जे नर भणशे, ते लहेशे सुखसम्पदा ए॥
आदि० ॥ १७॥ (५) चिदानन्दजी कृत पद
( राग-हितशिक्षाका ) पूरव पुण्य-उदय करी चेतन ! नोका नरभव पाया रे । पूरव ए टेक । दीनानाथ दयाल दयानिधि, दुर्लभ अधिक बताया रे। दश दृष्टान्ते दोहिलो नरभव, उत्तराध्ययने गाया रे ॥ पूरव० ॥१॥ अवसर पाया विषय रस राचत, ते तो मूढ कहाया रे। काग उड़ावण काज विप्र जिम, डार मणि पछताया रे । पूरव० ॥२॥ नदी-घोल-पाषाण न्याय कर, अर्धवाट तो आया रे।। अर्ध सुगम आगल रह तिनकुं, जिनने कछु घटाया रे । पूरव० ॥३॥ चेतन चार गतिमें निश्चे, मोक्षद्वार ए काया रे। करत कामना सुरपण याको, जिनकुंअनर्गल माया रे । पूरव०॥४॥
प्र-३६
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