Book Title: Panchpratikramansutra tatha Navsmaran
Author(s): Jain Sahitya Vikas Mandal Vileparle Mumbai
Publisher: Jain Sahitya Vikas Mandal

View full book text
Previous | Next

Page 584
________________ ५६७ श्री अनन्तनाथस्वामीका स्तवन ( राग-रामगिरि : करखा प्रभाती) धार तरवारनी सोहिली दोहिलो, चौदमां जिनतणी चरण सेवा। धार पर नाचता देख बाजोगरा, मेंवना धार पर रहे न देवा धार० ॥१॥ एक कहे सेविए विविध किरिया करी, फल अनेकान्त लोचन न देखे। फल अनेकान्त किरिया करी बापड़ा, रडवडे चार गतिमांहि लेखे धार० ॥ २॥ गच्छना भेद बहु नयण निहालतां, तत्त्वनी बात करतां न लाजे । उदरभरणादि निज काज करतां थकां, मोह नडीया कलिकाल राजे धार० ॥ ३॥ वचन निरपेक्ष व्यवहार जूठा कह्यो, वचन सापेक्ष व्यवहार साचो। वचन निरपेक्ष व्यवहार संसार फल, सांभली आदरी कांई राचो-- धार० ॥४॥ देव गुरु धर्मनी शुद्धि कहो किम रहे ? किम रहे शुद्ध श्रद्धान आणो। शुद्ध श्रद्धान विणु सर्व किरिया करी, छार पर लीपणुं तेह जाणो धार० ॥ ५॥ पाप नहि कोई उत्सूत्र भाषण जिस्यो, धर्म नहि कोई जगसूत्र सरिखो। सूत्र अनुसार जे भविक किरिया करे, तेहनुं शुद्ध चारित्र परिखो धार० ॥ ६ ॥ एह उपदेशनो सार संक्षेपथी, जे नरा चित्तमा नित्य ध्यावे । ते नरा दिव्य बहुकाल सुख अनुभवी, नियत आनन्दघन राज्य पावे धार० ॥ ७॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 582 583 584 585 586 587 588 589 590 591 592 593 594 595 596 597 598 599 600 601 602 603 604 605 606 607 608 609 610 611 612 613 614 615 616 617 618 619 620 621 622 623 624 625 626 627 628 629 630 631 632 633 634 635 636 637 638 639 640 641 642