Book Title: Panchpratikramansutra tatha Navsmaran
Author(s): Jain Sahitya Vikas Mandal Vileparle Mumbai
Publisher: Jain Sahitya Vikas Mandal

View full book text
Previous | Next

Page 599
________________ ५८२ सवि जिन सुखकारी, मोह-मिथ्या निवारी, दुरगति दुःख भारी, शोक-सन्ताप वारी । श्रेणी क्षपक सुधारी, केवलानन्त धारो, नमीए नर-नारी, जेह विश्वोपकारी ॥२॥ समवसरण बेठा, लागे जे जिन मीठा, करे गणप' पइट्ठा, इन्द्र-चन्द्रादि दोठा । द्वादशाङ्गी वरिट्ठा, गूंथतां टाले रिट्ठा, भविजन होय हिट्ठा, देखी पुण्ये गरिट्ठा ।। ३ ।। सुर समकितवन्ता, जेह रिद्ध महन्ता, जेह सज्जन सन्ता, टाळोए मुज चिन्ता। जिनवर सेवन्ता, विघ्न वारे दूरन्ता, जिन उत्तम थुणन्ता, पद्मने सुख दिन्ता ॥ ४ ।। (२) श्रीशान्तिनाथकी स्तुति वन्दो जिन शान्ति, जास सोवन्न-कान्ति, टाले भव-भ्रान्ति, मोह-मिथ्यात्व-शान्ति । द्रव्य-भाव-अरि-पान्ति, तास करतां निकान्ति, धरतां मन खान्ति, शोक-सन्ताप वान्ति ॥१॥ दोय जिनवर नीला, दोय रक्त रंगोला, दोय धोला सुशीला, काढता कर्म-कीला । न करे कोई हीला, दोय श्याम सलीला, सोल स्वामीजी पीला, आपजो मोक्ष-लीला ।। २ ।। जिनवरनी वाणी, मोह-वल्ली-कृपाणी, सूत्रे देवाणी, साधुने योग्य जाणी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 597 598 599 600 601 602 603 604 605 606 607 608 609 610 611 612 613 614 615 616 617 618 619 620 621 622 623 624 625 626 627 628 629 630 631 632 633 634 635 636 637 638 639 640 641 642