Book Title: Panchpratikramansutra tatha Navsmaran
Author(s): Jain Sahitya Vikas Mandal Vileparle Mumbai
Publisher: Jain Sahitya Vikas Mandal

View full book text
Previous | Next

Page 606
________________ (१२) अष्टमीकी स्तुति मङ्गल आठ करी जस आगल, भावधरी सुरराजजी, आठ जातिना कलश करीने, न्हवरावे जिनराजजो। वीर जिनेश्वर जन्ममहोत्सव, करतां शिवसुख साधेजी, आठमनुं तप करतां अम घर, मङ्गल-कमला वाधेजी ॥१॥ अष्टकर्म-वयरी-गज-गंजन, अष्टापद परे बलियाजी, आठमें आठ स्वरूप विचारे, मद आठे तस गलियाजी। अष्टमी गति पहोंतां जे जिनवर, फरस आठ नहि अंगजी, आठमनुं तप करतां अम घर, नित्य नित्य वाधे रंगजी ॥२॥ प्रतिहारज आठ बिराजे, समवसरण जिनराजेजी, आठमे आठमो आगम भाखो भविजन संशय भांजेजी। आठ जे प्रवचननी माता, पाले निरतिचारोजी, आठमने दिन अष्ट प्रकारे, जीवदया चित धारोजी ॥३॥ अष्ट प्रकारी पूजा करीने, मानवभव-फल लीजेजी, सिद्धाईदेवी जिनवर सेवी, अष्ट महासिद्धि दीजेजी। आठमनुं तप करतां लीजे, निर्मल केवल नाणजी, धीरविमल कवि सेवक नय कहे, तपथी कोडि कल्याणजी ॥४॥ (१३) - एकादशीकी स्तुति एकादशी अति रूअडी, गोविन्द पूछे नेम, किण कारण ए पर्व मोटुं, कहोने मुझशुं तेम । जिनवर-कल्याणक अति घणां, एकसोने पचास, तेणे कारण ए पर्व मोटुं, करो मौन उपवास ॥१॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 604 605 606 607 608 609 610 611 612 613 614 615 616 617 618 619 620 621 622 623 624 625 626 627 628 629 630 631 632 633 634 635 636 637 638 639 640 641 642