Book Title: Panchpratikramansutra tatha Navsmaran
Author(s): Jain Sahitya Vikas Mandal Vileparle Mumbai
Publisher: Jain Sahitya Vikas Mandal
View full book text
________________
५६६ तरस न आवे हो मरण-जीवनतणो, सीझे जो दरिसण काज ।। दरिसण दुर्लभ सुलभ कृपा थकी, आनन्दघन महाराज-अभि०॥६॥
(८) श्रीविमलनाथस्वामीका स्तवन
( राग-मल्हार : ईडर आंबा आंबली रे, ईडर दाडिम द्राख-यह देशी ) दुःख दोहग दूर टल्या रे, सुख संपदशं भेट । धीग धणो माथे कियो रे, कुण गंजे नर खेटविमल जिन ! दीठा लोयण आज, म्हारां सिद्धयां वंछित
काज-विमल० ॥१॥ चरण-कमल कमला वसे रे, निर्मल थिर पद देख । समल अथिर पद परिहरे रे, पङ्कज पामर पेख-विमल० ॥२॥ मुज मन तुझ पद-पङ्कजे रे, लीनो गुण मकरन्द । रङ्क गणे मन्दरधरा रे, इन्द्र-चन्द्र-नागिन्द-विमल० ॥३। साहेब ! समरथ तू धणी रे, पाम्यो परम उदार । मन विशरामी वालहो रे, आतमचो आधार-विमल० ॥ ४॥ दरिसण दीठे जिनतणुं रे संशय न रहे वेध । दिनकर-कर-भर पसरतां रे, अन्धकार-प्रतिष-विमल० ॥५॥ अमियमरी मूरति नची रे, उपमा न घटे कोय । शान्तसुधारस झीलती रे, निरखत तृप्ति न होय-विमल० ॥ ६ । एक अरज सेवक तणो रे, अवधारो जिनदेव । कृपा करी मुज दीजिए रे, आनन्दधन-पद-सेव-विमल० ॥७॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
___www.jainelibrary.org
Page Navigation
1 ... 581 582 583 584 585 586 587 588 589 590 591 592 593 594 595 596 597 598 599 600 601 602 603 604 605 606 607 608 609 610 611 612 613 614 615 616 617 618 619 620 621 622 623 624 625 626 627 628 629 630 631 632 633 634 635 636 637 638 639 640 641 642