Book Title: Panchpratikramansutra tatha Navsmaran
Author(s): Jain Sahitya Vikas Mandal Vileparle Mumbai
Publisher: Jain Sahitya Vikas Mandal

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Page 588
________________ ५७१ जे जे कहुं ते कान न धारे, आपमते रहे कार्यो । सुर नर पण्डितजन समझावे, समझे न माहरु सालुं हो कुन्थुजिन ॥ ६ ॥ में जाण्यु ए लिंग नपुंसक, सकल मरदने ठेले।। बोजो वाते समरथ छे नर, एहने कोई न झेले हो कुन्थुजिन० ॥७॥ मन साध्यं तेणे सघल साध्यं, एह बात नहीं खोटी। एम कहे साध्यं ते नवि मार्नु, एक हो वात छे मोटो हो . कुन्थुजिन० ॥ ८॥ मनडुं दुराराध्य तें वश आण्यु, ( ते ) आगमथी मति आणुं । आनन्दघन-प्रभु माहरुं आणो, तो साचुं करी जाणुं हो कुन्थुजिन० ॥९॥ (१३) श्रीपार्श्वनाथजीका स्तवन अन्तरजामी सुण अलवेसर, महिमा त्रिजग तुम्हारो; सांभलीने आव्या हुँ तीरे, जन्म-मरण-दुःख वारो। सेवक अरज करे छे राज, अमने शिव सुख आपो० ॥१॥ सहुकोना मन वांछित पूरो, चिन्ता सहुनी चूरो । एहवू बिरुद छे गज तमारं; केम राखो छो दूरो-सेवक० ॥२॥ सेवकने वलवलतो देखी, मनमा महेर न धरशो। करुणासागर किम कहेवाशो, जो उपकार न करशो-सेवक० ॥ ३ ॥ लटपटनुं हवे काम नहीं छे, प्रत्यक्ष दरिसण दीजे । धुंआडे धीजें नहि साहिब ! पेट-पड्या पतीजे-सेवक० ॥४॥ ॥ ४ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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