Book Title: Panchpratikramansutra tatha Navsmaran
Author(s): Jain Sahitya Vikas Mandal Vileparle Mumbai
Publisher: Jain Sahitya Vikas Mandal

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Page 582
________________ चरमावर्त' हो चरम-करण तथा रे, भव-परिणति-परिपाक । दोष टले वळी दृष्टि खुले भली रे, प्राप्ति प्रवचन वाक्-सम्भव०॥३॥ परिचय पातक घातक' साधु शुं रे, अकुशल अपचय चेत। ग्रन्थ अध्यातम श्रवण मनन करी रे, परिशीलन नय-हेत-सम्भव०॥४॥ कारण जोगे हो कारज नीपजे रे, एमां कोई न वाद । पण कारण विण कारज साधियो रे, एनिज मत उनमाद-सम्भव०॥५॥ मुग्ध सुगम करी सेवन आदरे रे, सेवन अगम अनूप । देजो कदाचित् सेवक याचना रे, आनन्दघन-रस-रूप-सम्भव०॥६॥ (७) श्रीअभिनन्दनस्वामीका स्तवन ( राग-धनाश्री-सिंधुडा आज निहेजो रे दीसे नाहलो-यह देशी ) अभिनन्दन जिन ! दरिसण तरसीए, दरिसण दुर्लभ देव । मत मत भेदे रे जो जई पूछिए, सौ थापे अहमेव-अभि० ॥१॥ सामान्ये करी दरिसण दोहिलं, निर्णय सकल विशेष । मदमें घेर्यो रे अन्धो किम करे ? रवि-शशि-रूप विलेख-अभि० ॥२॥ हेतुविवादे हो चित्त धरी जोइए, अति दुरगम नयवाद । आगमवादे हो गुरुगम को नहीं, ए सबलो विषवाद-अभि० ॥ ३ ॥ घाति-डुंगर आडा अति घणा, तुझ दरिसण जगनाथ । धोठाई करी मारग संचरू, सेगुं कोइ न साथ -अभि० ।। ४ ।। दरिसण दरिसण रटतो जो फिरू, तो रण-रोझ समान । जेने पिपासा हो अमृतपाननी, किम भांजे विषपान-अभि० ॥ ५ ॥ १. अन्तिम पुद्गलपरावर्तन । २. अनिवृत्तिकरण । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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