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किया जाता है, वह मुख्यतया ज्ञानाचारकी शुद्धिके लिये समझना। 'दैवसिक प्रतिक्रमणमें चारित्राचारकी शुद्धि के लिये दो लोगस्सका काउस्सग्ग किया जाता है और यहाँ एक लोगस्सका काउस्सग्ग क्यों? इस प्रश्नका उत्तर यह है कि 'दिनको अपेक्षा रात्रिमें थोड़ी प्रवृत्ति होनेसे दोष अल्प होना सम्भव है।' फिर 'पहले काउस्सग्गमें अतिचारोंका चिन्तन करनेको अपेक्षा तीसरे काउस्सग्गमें अतिचारका चिन्तन क्यों किया जाता है ? इसका उत्तर यह है कि पहले काउस्सग्गमें निद्राका कुछ उदय सम्भवित है, अतः अतिचारोंका पूर्णतया चिन्तन नहीं हो सकता, इसलिये उसका तीसरे काउस्सग्गमें चिन्तन किया जाता है।'
८-९. फिर तीसरे और चौथे आवश्यककी जो क्रिया होती है उसके हेतु देवसिक प्रतिक्रमणकी विधिके अनुसार समझना।
१०. फिर तीन आचारोंके काउस्सग्गसे भी अशुद्ध रहे हुए अतिचारोंकी एकत्र शुद्धिके लिये तप-चिन्तनका कायोत्सर्ग करना चाहिये। वह नहीं आता हो तो सोलह नमस्कार गिननेकी प्रवृत्ति है, किन्तु वास्तवमें तो तपका चिन्तन करना चाहिये । उसकी विधि इस प्रकार समझनी :
'श्रीवीर भगवान्ने छ: मासका तप किया था। हे चेतन ! वह तप तूं कर सकेगा ? तब मनमें उत्तरका चिन्तन करना कि वैसी शक्ति नहीं है और परिणाम नहीं है। फिर अनुक्रमसे एक एक उपवास कम करके विचार करना। ऐसा करते हुए पाँच मासतक
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