________________
५३७
हैं, अतः यहाँ प्रथम चैत्यवन्दन किया जाता है और उसमें 'जगचिंतामणि' सूत्रसे 'जय वीयराय' सूत्र तकके सूत्र बोले जाते हैं। फिर भगवान् आदि चारको वन्दन किया जाता है, अर्थात् देव तथा गुरु दोनोंका वन्दन होता है।
४. दैवसिक प्रतिक्रमणमें सज्झाय अन्तमें की जाती है, और यहाँ प्रारम्भमें की जाती है, उसका कारण यह है कि प्रातःकालीन प्रतिक्रमणके लिये यथोक्त समयकी राह देखना है। सज्झायमें भरतबाहुबलि आदि महापुरुष तथा सुलसा, चन्दनबाला आदि महासतियोंका प्रभातमें स्मरण किया जाता है, क्यों कि उन्होंने जैसा जीवन बिताया है वह अपने लिये अध्यात्मका ऊँचा आदर्श स्थापित करता है।
५. फिर गुरुको सुख-साता पूछकर रात्रिकप्रतिक्रमणको विधिपूर्वक स्थापना की जाती है और दाहिना हाथ चरवला अथवा कटासणा पर रखकर प्रतिक्रमणके बीजकरूप 'सव्वस्स वि राइअ दुच्चितिअ.' आदि पद बोले जाते हैं।
- ६. फिर 'नमो त्थु णं' सूत्र बोला जाता है। वह देव-वन्दन मङ्गलके लिये समझना।
७. फिर 'करेमि भंते' आदि सूत्र बोलकर एक लोगस्सका काउस्सग्ग किया जाता है, वह चारित्राचारको शुद्धिके लिये समझना। बादमें एक 'लोगस्स' बोल कर एक लोगस्सका काउस्सग्ग किया जाता है, वह दर्शनाचारकी शुद्धिके लिये समझना। फिर 'पुक्खरवरदीवड्ढे' आदि सूत्र बोलकर 'अइयार-वियारण-गाहा' का काउस्सग्ग
प्र-३५
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org