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आना। फिर एक-एक मास कम करके विचार करना और एक मास तक आना । फिर एक दिन ऊण मासखमण, दो दिन ऊण' मासखमण इस प्रकार तेरह दिन बाकी रहें तबतक अर्थात् सत्रह उपवासका विचार करना। फिर 'हे चेतन! तू चौंतीस भक्त सोलह उपवास) कर, बत्तोस भक्त कर, तास भक्त कर' इस प्रकार दो-दो भक्त कम करते हुए चौथ भक्त ( एक उपवास ) तक विचार करना । और उतनी भी शक्ति न हा तो अनुक्रमसे आयंबिल, निब्बी, एगासण, बियासण, अवड्ढ, पुरिमड्ढ, साड्ढपोरिसा, पोरिसी, नवकारसी-पर्यन्त विचार करना। उसमें जहाँतक करनेको शक्ति हो अर्थात् वह तप पहले किया हो, वहाँसे ऐसा विचार करे कि 'शक्ति है, पर परिणाम नहीं।' बादमें वहाँसे घटाते-घटाते जो पच्चक्खाण करना हो वहाँ आकर रुके और ‘शक्ति भी है और परिणाम भी है' इस तरह विचार करके मनमें दृढ़ निश्चय करके काउस्सग्गको पूरा करना ।
११. फिर छठे आवश्यककी क्रिया प्रारम्भ होती है, अतः मुहपत्तीका पडिलेहण करके द्वादशवर्त्त-वन्दन किया जाता है और सर्व तीर्थों को वन्दन करनेके हेतु से 'सकल-तीर्थ-वन्दना' बाली जाती है। बादमें पूर्वचिन्ति पच्चक्खाण किया जाता है। उसमें गुरुके समीप प्रतिक्रमण होता हो तो गुरुके पास, अन्यथा स्वयं हो पच्चक्खाण कर लिया जाता है। और 'सामायिक पच्चक्खाण किया है जी !' ऐसा कहा जाता है । यदि पच्चक्खाण लेना नहीं आता हो तो पच्चक्खाणको धारणा की जाती है और 'पच्चक्खाण धार लिया है जी !' ऐसा कहा जाता है।
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