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५४० १२. फिर छहों आवश्यक पूर्ण होनेका हर्ष प्रकट करनेके लिए 'इच्छामो अणुसटिं' कह कर 'प्राभातिक-स्तुति 'अर्थात्, 'विशाललोचन-दलं' सूत्रकी तीन गाथा बोली जाती है, वे मन्द स्वरसे बोलनी, किन्तु उच्च स्वरसे नहीं बोलनी, क्यों कि उच्च स्वरसे बोलनेसे हिंसक जीव जाग उठे और हिंसामें प्रवृत्त हों, उसका निमित्त बननेका प्रसंग आये।
१३. बादमें चार थोय (स्तुति)से देव-वन्दन किया जाता है, तथा चार खमा० प्रणि• देकर भगवान् आदिको थोभ-वंदण किया जाता है, तथा श्रावक 'अड्ढाइज्जेसु' सूत्र बोलते हैं, वह सब मङ्गलके लिये समझना।
श्रावक पोषधमें हो तो यहाँ 'बहुवेल संदिसाहु' और 'बहुवेल -करूंगा' ऐसे आदेश माँगे। स्वतन्त्र श्रावकको ऐसा नहीं करना चाहिए । आदेश माँगनेका कारण यह है कि सब कार्य गुरुमहराजसे पूछकर करना चाहिये।
१४-१५. बादमें श्रीसीमन्धरस्वामी तथा श्रीसिद्धाचलजीके चैत्यवन्दन किये जाते हैं, वह सामाचारीके अनुसार तथा सामायिकका दो घड़ीका समय पूरा करनेके लिये समझना । इस प्रतिक्रमणमें एक तो 'जग-चितामणि' सुत्त से प्रारम्भ होनेवाला और दूसरा 'प्राभातिक स्तुति' इस प्रकार दो चैत्यवन्दनोंके करनेकी प्रवृत्ति है, वह विशेष माङ्गलिकके लिये समझनी।
१६. तदनन्तर सामायिक पूर्ण किया जाता है, उसका हेतु पहले बतला चुके हैं।
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