Book Title: Panchpratikramansutra tatha Navsmaran
Author(s): Jain Sahitya Vikas Mandal Vileparle Mumbai
Publisher: Jain Sahitya Vikas Mandal

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Page 568
________________ ५५१ आचारज-गुण छत्रीश, पचवीश उवज्झाय । सत्तावीश साधुना, जपतां शिवसुख थाय ।। २॥ अष्टोत्तर-शत गुण मली, एम समरो नवकार । धीरविमल पण्डिततणो, नय प्रणमे नित सार ॥ ३॥ श्रीशान्तिनाथका चैत्यवन्दन शान्ति जिनेश्वर सोलमा, अचिरा-सुत वन्दो। विश्वसेन-कुल-नभमणि, भविजन-सुख-कन्दो ॥१॥ मृगलंछन निज आउखु, लाख बरस प्रमाण । हत्थिणाउर-नयरी-धणो, प्रभुजी गुण-मणि-खाय।। २ ॥ चालीश धनुषनी देहडी, समचउरस संठाण । वदन-पद्म ज्युं चंदलो, दीठे परम कल्याण ।। ३ ।। चौबीस जिनलाञ्छनका चैत्यवन्दन (४) ऋषभ-लंछन ऋषभदेव, अजित-लंछन हाथी । सम्भव-लंछन घोडलो, शिवपुरनो साथी ॥१॥ अभिनन्दन-लंछन कपि, क्रौंच-लंछन सुमति । पद्म-लंछन पद्मप्रभु, विश्वदेवा सुमति ॥ २ ॥ सुपार्श्व-लंछन साथीओ, चन्द्रप्रभु-लंछन चन्द्र । मगर-लंछन सुविधि प्रभु,श्रीवच्छ शीतल जिणन्द ॥ ३ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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