Book Title: Panchpratikramansutra tatha Navsmaran
Author(s): Jain Sahitya Vikas Mandal Vileparle Mumbai
Publisher: Jain Sahitya Vikas Mandal
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५६२ उर्वशी रूडी अपसराने, रामा छे मनरङ्ग । पाये नेउर रणझणे कांई, करती नाटारम्न....माता० ॥३॥ तुंहि ब्रह्मा, तुंहि विधाता, तुं जगतारणहार । तुज सरीखो नहि देव जगतमां, अडवडिया आधार....माता० ॥ ४॥ तुहि भ्राता, तुं हि त्राता, तुंहि जगतनो देव । सुर-नर-किन्नर-वासुदेवा, करता तुज पद सेव....माता०॥ ५॥ श्रीसिद्धाचल तीरथ केरो, राजा ऋषभ जिणंद । कीर्ति करे माणेकमनि ताहरो, टालो भवभय फंद....माता० ॥६॥
(३) श्रीआदिजिनका स्तवन ( राग-मारु-करम परीक्षा करण कुंवर चल्यो-ए देशी ) ऋषभ जिनेश्वर प्रोतम माहरो रे, ओर न चाहं रे कन्त । रीझ्यो साहेब सङ्ग न परिहरे रे, भांगे सादि-अनन्त-ऋ॥१॥ प्रीतसगाई रे जगमां सह करे रे, प्रीतसगाई न कोय । प्रीतसगाई रे निरुपाधिक कही रे, सोपाधिक धन खोय-ऋ० ॥२॥ कोई कंथ कारण काष्ठभक्षण करे रे, मलशं कन्तने धाय । ए मेलो नवि कहीए संभवे रे, मेलो ठाम न ठाय-ऋ० ॥३॥ कोई पतिरञ्जन अति घणुं तप करे रे, पतिरञ्जन तन ताप । ए पतिरञ्जन में नवि चित धर्यु रे, रञ्जन धातु मिलाप-ऋ० ॥४|| कोइ कहे लीला रे अलख अलख तणीरे, लख पूरे मन आश। दोष-रहितने लीला नवि घटे रे, लोला दोष विलास-ऋ० ॥५॥ चित्तप्रसन्ने रे पूजन फल कहयुं रे, पूजा अखण्डित एह । कपटरहित थई आतम अरपणा रे, आनन्दघन-पद-रेह-ऋ० ॥६॥
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