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आवश्यक में प्रवेश किया जाता है । उसमें पहले ठीक तरहसे शरीर झुका कर पहले काउस्सग्ग में धारणा किये हुए अतिचारकी आलोचना करने के हेतुसे 'इच्छा० संदिसह भगवन् ! देवसियं आलोएमि' यह सूत्र बोलकर गुरुके समक्ष आलोचना की जाती है । फिर 'सात लाख' और 'अठारह पापस्थानक' के सूत्र बोले जाते हैं । इसका कारण दिवस - सम्बन्धी दोषोंकी आलोचना करना है । बादमें 'सव्वस्स वि' सूत्र बोला जाता है । उसमें 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन् !' ये शब्द गुरु के समक्ष प्रायश्चित्त - याचनाके रूपमें हैं और गुरु 'पडिक्क मेह' शब्द से 'प्रतिक्रमण' नामक प्रायश्चित्तका आदेश देते हैं तब 'तस्स मिच्छामि दुक्कडं' ये शब्द बोले जाते हैं और प्रतिक्रमण की विशेष आलोचना करनेके लिए नीचे बैठकर प्रथम माङ्गलिकके लिए नमस्कार गिना जाता है । फिर समताकी वृद्धिके लिये 'करेमि भंते' सूत्र बोला जाता है । वादमें अतिचारों की सामान्य आलोचनाके लिये 'अइयारालोयण - सुत्त' बोला जाता है और तदनन्तर वीरासन से बैठकर 'सावग - पडिक्कमण-सुत्त' बोला जाता है । इस सत्र के प्रत्येक पदका अर्थ बराबर समझकर उसका चिन्तन करना चाहिये और उसमें प्रदर्शित जिन अतिचारोंका सेवन हुआ हो उनके लिये पश्चात्ताप करना चाहिये । आन्तरिक पश्चात्ताप पवित्रताको प्राप्त करनेका सुविहित मार्ग है, अतः प्रत्येक मुमुक्षुको उसका पूर्ण सावधानीसे अनुसरण करना चाहिये ।
१. दस प्रकारके प्रायश्चित्तमें प्रतिक्रमण - प्रायश्चित्त दूसरा है । विशेष जानकारी के लिए देखो प्रबोधटीका भाग १, सूत्र ६ ।
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