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५३४ प्रथा है कि राजा अमुक कार्य बतलाये तब वह करनेके बाद प्रणाम करके निवेदित करना । फिर प्रतिक्रमण करनेवाला छहों आवश्यक करनेके स्मरणरूप छः आवश्यक कर लेने का निवेदन करता है और यहाँ षडावश्यकमय प्रतिक्रमणकी क्रिया पूर्ण होती है।
१०. फिर इच्छामो 'अणुसटुिं' ऐसे वचन बोले जाते हैं, उसका पारिभाषिक अर्थ यह है कि गुरुमहाराजके सब आदेश पूर्ण होनेके बाद अब हितशिक्षाके लिये नया आदेश हो तो हम चाहते हैं । सम्यक्त्व-सामायिकादिकी आरोपण-विधिमें तथा अङ्गादिकके उपदेशमें भी इस प्रकार 'इच्छामो अणुसटुिं' ऐसा वचन आता है।
फिर 'नमो खमासमणाणं' और 'नमोऽहत्' के मङ्गलाचरणपूर्वक वर्धमान स्वरसे वर्धमानअक्षरयुक्त श्रीवर्धनानस्वामीकी स्तुति बोली जाती है। उसमें समाचारी ऐसी है कि गुरुमहाराजके एक स्तुति ( गाथा) बोलनेके पश्चात् दूसरे वह और शेष स्तुति साथ बोलें। परन्तु पाक्षिक प्रतिक्रमणमें गुरुमहाराजका तथा पर्वका विशेष बहुमान करनेके लिये गुरुके तीनों स्तुति बोलनेके बाद सब साधु और श्रावक यह स्तुति पुनः समकालमें उच्चस्वरसे बोलें। यहाँ ऐसा सम्प्रदाय है कि--साध्वियों और श्रादिकाओंको 'संसारदावानल' की तीन स्तुतियाँ बोलनी चाहिये।
फिर 'नमो त्थु णं' सूत्र बोलकर आदेश याचनापूर्वक पूर्वाचार्यरचित स्तवन बोला जाता है तथा 'सप्तति-शत-जिनवन्दन' बोलकर भगवान् आदि चारको 'थोभ-वन्दन' किया जाता है तथा दाँया
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