________________
४९३ (१४) श्रीसीमन्धर स्वामीका चैत्यवन्दन फिर दोनों घुटने भूमिपर रखकर ईशान कोणकी ओर बैठ कर अथवा दिशाका मनमें चिन्तन कर खमा० प्रणि० करके श्रीसोमन्धर स्वामीका चैत्यवन्दन तथा स्तवन बोलकर सब विधि थोय-पर्यन्त करनी। उसमें ‘अरिहंत चेइआणं' सूत्रसे खड़ा होना।
(१५) श्रीसिद्धाचलजीका चैत्यवन्दन इसो प्रकार खमा० प्रणि० करके श्रीसिद्धाचलजीका चैत्यवन्दन श्रीसिद्धाचलजीकी दिशाके सम्मुख अथवा उस दिशाको मनमें कल्पना करके स्थापनाजी सम्मुख करना । उसमें चैत्यवन्दन, स्तवन और स्तुति श्रीसिद्धाचलजोको कहनो ।
(१६) सामायिक पारना फिर सामायिक पारनेकी विधिके अनुसार सामायिक पारना। इति ।
पाक्षिक प्रतिक्रमणकी विधि
(१) प्रथम दैवसिक प्रतिक्रमणमें 'सावग-पडिक्कमण-सुत्त' बोलने तककी जो विधि है, वह करनी। परन्तु उसमें चैत्यवन्दन 'सकलार्हत्- स्तोत्र' का करना और स्तुति 'स्नातस्या' की बोलनी ।
(२) फिर खमा० प्रणि० करके 'देवसिअ आलोइअ पडिक्कंता
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org