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स्थलपर वह प्रतीकरूपमें आयोजित है, परन्तु साधनाके समयमें उसका यथार्थ उपयोग करना उचित है। "कायाको स्थानसे स्थिर करके, वाणीको मौनसे स्थिर करके और मनको ध्यानसे स्थिर करके बहिर्भावमें विचरते हुए आत्माका विसर्जन करना" यह उसकी प्रतिज्ञा है। यह कायोत्सर्ग किया जाय तो उत्तरीकरणका मुख्य हेतु सिद्ध हो । कायोत्सर्गके समय स्मरण किये जानेवाले 'लोगस्स' सूत्रके पद अवश्य ही गम्भीर अध्ययन-मनन माँगते हैं। उत्तरोत्तर अभ्याससे उक्त चिन्तन सहज सम्भव है। तदनन्तर प्रकटरूपमें बोले जानेवाले 'लोगस्स' सूत्र अर्थात् 'चउवीसत्थय' सूत्रका पाठ स्तुति-मंगलरूप है । पश्चात्ताप और प्रायश्चित्तसे कुछ निर्बल बना हुआ हृदय अर्हत् और सिद्ध भगवन्तोंके कीर्तनसे पुनः बलवान् बनता है और सत्प्रवृत्तिरूप आराधनामें उत्साहवान् होता है।
इस क्रियाके पूर्ण होनेके बाद 'मुहपत्ती-पडिलेहण' ( मुखवस्त्रिका -प्रतिलेखन) की क्रिया आरम्भ होती है। प्रत्येक क्रिया गुरु-वन्दन
और गुरु-आदेशसे करने योग्य होनेसे, यहाँ गुरुको खमासमण प्रणिपातकी क्रियापूर्वक वन्दन किया जाता है और मुहपत्ती पडिलेहनेके लिये 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन् ! सामायिक-मुहपत्ती पडिलेहेउं ?' इन शब्दोंसे आज्ञा माँगी जाती है। गुरु उपस्थित हों तो वे कहते हैं 'पडिलेहेह' अर्थात् 'प्रतिलेखना करो!' साधक उस आदेशको शिरोधार्य करते हुए कहता है कि 'इच्छ'-'मैं इसी प्रकार चाहता हूँ।' फिर वह मुहपत्तीकी पडिलेहणा करता है।
यह विधि पूर्ण होनेके पश्चात् खमासमण प्रणिपातकी क्रिया द्वारा
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