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पारना। बादमें 'लोगस्स' सूत्रका पाठ बोलना और मुहपत्तीका पडिलेहण करके द्वादशावर्त्त-वन्दन करना। ___ (११) फिर 'इच्छा० अब्भुट्टिओ हं संमत्त-खामणेणं अभितर पक्खिअं खामेउं ?' ऐसा कहकर गुरुको आज्ञा मिलनेपर ‘इच्छं' बोलकर, 'खामेमि पक्खिअं एक ( अंतो ) पक्खस्स, पन्नरस दिवसाणं, पन्नरस राइआणं जं किंचि अपत्तिअं०' आदि पाठ बोलकर खमा० प्रणि० करके 'इच्छा०' पक्खिअ-खामणां खामुं ?' ऐसा कहकर चार खामणां खामना। मुनिराज हों तो खामणां कहना और मुनिराज न हों तो, खमा० प्रणि० करके 'इच्छामि खमासमणो !' कहकर दाहिना हाथ उपधिपर रखकर, एक नमस्कार, कह 'सिरसा मणसा मत्थएण वंदामि' कहना । केवल तीसरे खामणां के अन्तमें 'तस्स मिच्छा मि दुक्कडं' कहना। फिर 'पक्खि समत्तं, देवसि पडिक्कमामि' ऐसा कहना ।
(१२) फिर दैवसिक प्रतिक्रमणमें 'सावग-पडिक्कमण-सुत्त' कहने के बाद द्वादशावत-वन्दन किया जाता है, वहाँसे सामायिक पारसे तककी सब विधि करनी। किन्तु 'सुयदेवया' को थोयके स्थानपर भुवनदेवताका काउस्सग्ग करना, और ज्ञानादि० थोय कहनी। तथा क्षेत्रदेवताके काउस्सग्गमें 'यस्याः क्षेत्र' स्तुति बोलनी । स्तवनमें 'अजिय-संति-थओ' बोलना । सज्झायके स्थानपर 'नमस्कार', 'उवसग्गहरं' स्तोत्र तथा 'संसार-दावानल' स्तुतिकी चार गाथाएँ बोलनी। उसमें चौथी स्तुतिके अन्तिम तीन चरण सकल सङ्क एक साथ उच्च स्वरसे कहें और 'शान्ति-स्तव ( लघु शान्ति )' के स्थानपर 'बृहच्छान्ति' कहनो।
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