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आदि की निंदा की। मिथ्यादृष्टि की पूजा-प्रभावना देख कर प्रशंसा तथा प्रीति की । दाक्षिण्यता से उसका धर्म माना । मिथ्यात्व को धर्म कहा। इत्यादि श्री-सम्यक्त्व व्रत सम्बन्धी जो कोई अतिचार पक्ष-दिवस में सूक्ष्म या बादर जानते, अजानते लगा हो, वह सब मन, वचन, काया से मिच्छामि दुकडं।
पहले स्थूल-प्राणातिपात-विरमण-व्रत के पाँच अतिचार--"वह बंध छविच्छेए" द्विपद, चतुष्पद आदि जीव को क्रोध-वश ताडन किया, घाव लगाया, जकड़ कर बांधा। अधिक बोझ लादा। निर्वांछन-कर्म, नासिका छिदवायी, कर्ण छेदन करवाया, खस्सी किया । दाना घास पानी की समय पर सार-संभाल न की, लेन देन में किसी बदले किसी को भूखा रखा, पास खड़ा होकर मरवाया, कैद करवाया। सड़े हुए धान को बिना सोधे काम में लिया, तथा अनाज बिना शोधे पिसवाया, धूप में सुखाया। पानी यतना से न छाना । इंधन, लकड़ी, उपले, गोहे आदि विना देखे जलाये उनमें सर्प, बिच्छू, कानखजूरा, कीड़ी, मकौड़ी, सरोला, मांकड, जुआ, गिंगोड़ा आदि जीदों का नाश हुआ । किसी जीव को दबाया, दुःख दिया । दुःखी जीव को अच्छी जगह पर न रखा। चूंटी ( कोड़ी) मकोड़ी के अंडे नाश किये लीख, फोडा, दीमक, कीड़ी, मकोड़ी, घीमेल, कातरा,
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