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३-शुद्धि शुद्धिपूर्वक को हुई क्रिया अत्यन्त फलदायक होती है, इसलिए प्रतिक्रमण करनेवालेको शरीर, वस्त्र, और उपकरणकी शुद्धिका ध्यान रखना चाहिये।
४-भूमि-प्रमार्जन प्रतिक्रमणके लिए कटासन बिछानेसे पूर्व चरवलेसे भूमिका प्रमार्जन करना चाहिये।
५-अधिकार प्रतिक्रमण साधु और श्रावकको प्रातः और सायं नियमित करना चाहिये । उसमें जो श्रावक व्रतधारी न हो उसको भी प्रतिक्रमण करना चाहिये, क्योंकि वह तृतीय वैद्यकी ओषधिके समान अत्यन्त हितकारी है। एक राजाके पास तीन वैद्य आये । उनमें पहले वैद्यके पास ऐसा रसायन था कि जो व्याधि हो तो उसको मिटा दे और न हो तो नवीन रोग उत्पन्न कर दे । दूसरे वैद्यके पास ऐसी ओषधि थी कि जिससे व्याधि हो तो मिट जाय और न हो तो नयो उत्पन्न न करे और तीसरे वैद्यके पास ऐसी औषधि थी कि जिससे व्याधि हो तो मिट जाय और न हो तो सर्व अंगोंको पुष्टिकर भविष्यमें होनेवाले रोगोंको भी रोक दे। इसी प्रकार प्रतिक्रमण भी अतिचार लगे हों तो उनको शुद्धि करता है और न लगे हों तो चारित्रधर्मकी पुष्टि करता है। १. उपकरणोंके बारेमें देखो-प्रबोधटीका भाग १ ला, परिशिष्ट पाँचवाँ । २. प्रतिक्रमणका परमार्थ समझने के लिए देखो-"प्रबोधटोका" भाग-२, परिशिष्ट तीसरा, 'प्रतिक्रमण अथवा पापमोचनको पवित्र क्रिया' ।
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