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करनेकी भावना करनी चाहिये । तथा कुदेव, कुगुरु और कुधर्मको परिहरनेका दृढ़ सङ्कल्प करना चाहिये। यदि इतना हो तो ज्ञान, दर्शन और चारित्रकी आराधना जिसका कि दूसरा नाम 'सामायिक' है, उसको साधना यथार्थरूपमें हो सके। ऐसी आराधना करनेके लिये 'ज्ञान-विराधना, दर्शन-विराधना और चारित्र-विराधनाका परिहरण आवश्यक है। संक्षेपमें 'मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्ति' आदरणीय अर्थात् उपादेय है और 'मनोदण्ड, वचनदण्ड एवं कायदण्ड' परिहरणीय हैं।
इस प्रकार 'उपादेय' और 'हेय' के सम्बन्धमें भावना करके फिर जो वस्तुएँ खास तौरपर त्याज्य हैं तथा जिनके बारेमें यतना करने खास आवश्यकता है, उसका विचार 'शरीरकी पडिलेहणा' के प्रसङ्गपर करना चाहिये, जो इस प्रकार है। ___ 'हास्य, रति, अरति परिहरू', तथा “भय, शोक, जुगुप्सा परिहरू' अर्थात् हास्यादि षट्क जो चारित्र मोहनीय-कषायप्रकृतिसे उत्पन्न होता है, उसका त्याग करू; जिससे मेरा चारित्र सर्वांशमें निर्मल बने ।
"कृष्णलेश्या, नीललेश्या और कापोतलेश्या परिहरू क्योंकि इन तीनों लेश्याओं में अशुभ अध्यवसाओंकी प्रधानता है और उसका फल आध्यात्मिक पतन है।
"रसगारव, ऋद्धिगारव और सातागारव परिहरूँ" क्योंकि इसका फल भी साधनामें विक्षेप और आध्यात्मिक पतन है।
इसके साथ "मायाशल्य, निदानशल्य और मिथ्यात्वशल्य भी
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