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४६३ पेसवणे० आणवण-प्पओगे, पेसवण-प्पओगे, सदाणुवाई, रूवाणुवाई बहिया-पुग्गल-पक्खेवे । नियमित भूमि में बाहिर से वस्तु मंगवाई । अपने पास से अन्यत्र भिजवाई । खुंखारा आदि शब्द करके, रूप दिखाके या कंकर आदि फेंक कर अपना होना मालूम कराया। इत्यादि दसवें देशावकाशिक व्रत संबंधी जो कोई अतिचार पक्ष-दिवस में सूक्ष्म या बादर जानते, अजानते लगा हो वह सब मन, वचन, काया से मिच्छामि दुक्कडं ॥
ग्यारहवें पौषधोपवास व्रत के पांच अतिचार 'संथारुच्चार विही .' अप्पडिलेहिअ, दुप्पडि-लेहिअ, सिज्जासंथारए । अप्पडिलेहिय दुप्पडि-लेहिय उच्चार पासवण भूमि । पौषध लेकर सोने की जगह बिना पूजे-प्रमाजें सोया । स्थंडिल आदि की भूमि भली प्रकार शोधी नहीं । लघु-नीति बड़ी-नीति करने या परठने के समय "अणुजाणाह जस्सुग्गहो" न कहा। परठे बाद तीन बार 'वोसिरे' न कहा । जिनमंदिर और उपाश्रय में प्रवेश करते हुए 'निसीहि' और बाहिर निकलते हुए 'आवस्सही' तीन बार न कही । वस्त्र आदि उवधि की पडिलेहणा न की। पृथ्वीकाय, अपकाय, तेउकाय, वायुकाय, वनस्पतिकाय, त्रसकाय का संघट्टन हुआ। संथारा पोरिसी पढ़नी भुलाई। बिना संथारे ज़मीन पर सोया। पोरिसी में नींद ली, पारना आदि की चिंता की। समय पर,
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