________________
४५२
उववह थिरीकरणे, वच्छल्ल पभावणे अट्ठ ॥३॥
देव गुरु-धर्म में निःशंक न हुआ । एकांत निश्चय न किया। धर्मसंबंधी फल में संदेह किया । साधु-साध्वी की जुगुप्सा-निंदा की । मिथ्यात्वियों की पूजा प्रभावना देख कर मूढ़दृष्टि पना किया। कुचारित्री को देख कर चारित्रवान पर भी अश्रद्धा की। संघ में गुणवान् को प्रशंसा न की। धर्म से पतित होते हुए जीव को स्थिर न किया । साधर्मी का हित न चाहा । भक्ति न की । अपमान किया। देवद्रव्य, ज्ञानद्रव्य, साधारण द्रव्य की हानि होते हुए उपेक्षा की। शक्ति होने पर भी भली प्रकार सार-संभाल न की। साधर्मी से कलह-क्लेश करके कर्मबंधन किया । मुखकोश बांधे विना वीतराग देव की पूजा की। धूपदानी, खसकूची, कलश आदिक से प्रतिमा जी को ठपका लगाया, जिन बिंब हाथ से गिरा । श्वासोच्छवास लेते हुए आसातना हुई। जिन मन्दिर तथा पौषधशाला में थूका, तथा मल-श्लेष्म किया, हँसी मस्करी की, कुतूहल किया। जिनमन्दिर संबंधी चौरासी आसातनाओं में से और गुरु महाराज संबंधी तैंतीस आसातनाओं में से कोई आसातना हुई हो ! स्थापनाचार्य हाथ से गिरे हों या उन की पडिलेहणा न की हो । गुरु के वचन को मान न दिया हो, इत्यादि दर्शनाचार संबंधी जो कोई अतिचार पक्ष-दिवस में सूक्ष्म या वादर
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org