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मूल[तवगच्छ-गयण-दिणयर-जुगवर-सिरिसोमसुंदरगुरूणं । सुपसाय-लद्ध-गणहर-विज्जासिद्धि भणइ सीसो ॥१४॥]
शब्दार्थ
तवगच्छ-गयण-दिणयर-जुग- सुपसाय-लद्ध-गणहर-विज्जा
वर-सिरिसोमसुन्दरगुरूणं- सिद्धि-सुप्रसादसे जिन्होंने तपागच्छरूपी आकाशमें सूर्य- गणधर विद्याकी (सूरिमन्त्रकी) समान युगप्रधान श्रीसोमसुन्दर सिद्धि प्राप्त की है, ऐसे । गुरुके ।
सुपसाय-सुप्रसाद । लद्ध-लब्ध।
गणहर-विज्जा-गणधर विद्या तवगच्छ-तपागच्छ । गयण
सूरिमन्त्र । सिद्धि-सिद्धि । गगन । दिणयर-सूर्य । जुग- | भणइ-पढ़ता है।
वर-युगप्रधान। सीसो-शिष्य । अर्थ-सङ्कलना
तपागच्छरूपी आकाशमें सूर्य-समान ऐसे युगप्रधान श्रीसोमसुन्दर-गुरुके सुप्रसादसे जिन्होंने गणधर विद्या (सूरमन्त्र)की सिद्धि की है, ऐसे उनके शिष्य (श्रीमुनिसुन्दरसूरि) ने यह स्तोत्र बनाया है ॥१४॥ सूत्र-परिचय
सहस्रावधानी श्रीमुनिसुन्दरसूरिद्वारा रचित इस स्तवनके प्रयोगसे सिरोही राज्यमें उत्पन्न टिड्डियोंका उपद्रव शान्त हुआ था, अतः ये नित्य स्मरण करने योग्य माना जाता है और प्रचलित नव स्मरणमें इसका स्थान तीसरा है । इस स्तवनका मूल नाम इसकी तेरहवीं गाथाके अनुसार 'संतिनाह-सम्मद्दिट्ठिय-रवखा' है, परन्तु इसके प्रथम शब्दसे 'संतिकरं' स्तवनके नामसे प्रसिद्ध है।
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