________________
विहुय - रया !-हे कर्म-रहित ! | विउल-कुला !-हे विशाल विहुय-दूर किया हुआ । रय- कुलवाले ! रजस्, कर्म ।
पणमामि - प्रणाम करता हूँ। अजि! हे अजितनाथ !
ते-आपको। उत्तम-तेअ ! हे उत्तम तेजवाले !
भव-भय - मरण !-हे भवके
भयको नष्ट करनेवाले! [गुहि-गुणोंसे ।]
मूरण-नष्ट करनेवाला । महामुणि ! हे महामुनि !
| जग-सरणा !-हे जगत्के जोवोंअमिय - बला !- हे अपरिमित को शरण देनेवाले ! -बलवाले !
मम-मेरे। अमिय-अपरिमित। | सरणं- शरण । अर्थ-सङ्कलना
हे इक्ष्वाकु कुलमें उत्पन्न होनेवाले ! हे विशिष्ट देहवाले ! हे नरेश्वर ! हे नर-श्रेष्ठ ! हे मुनि-श्रेष्ठ ! हे शरद् ऋतुके नवीन चन्द्र जैसे कलापूर्ण मुखवाले ! हे अज्ञान-रहित ! हे कर्म-रहित ! हे उत्तम तेजवाले ! (गुणोंसे) हे महामुनि ! हे अपरिमित बलवाले ! हे विशाल कुलवाले ! हे भवका भय नष्ट करनेवाले ! हे जगत्के जीवोंको शरण देनेवाले अजितनाथ प्रभु ! मैं आपको प्रणाम करता हूँ; क्योंकि आप ही मुझे शरणरूप हैं ।। १३ ।। मूल
( दूसरे मुक्तकसे श्रीशान्तिनाथकी स्तुति ) देव-दाणविंद-चंद-सूर-वंद ! हट्टतुट्ट ! जिट्ठ !
परम-लट्ठ-रूव !, धंत-रुप्प-पट्ट-सेय-सुद्ध-निद्ध-धवल-दंत-पंति !।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org