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अर्थ- सङ्कलना
तपोबल से महान्, कर्मरूपी रज और मलसे रहित, शाश्वत और पवित्र गतिको प्राप्त श्रीअजितनाथ और श्रीशान्तिनाथके युगलकी मैंने इस प्रकार स्तुति की; अतः अनेक गुणोंसे युक्त और परम-मोक्षसुखके कारण सकल क्लेशोंसे रहित ( श्रीअजितनाथ और श्रीशान्तिनाथका युगल ) मेरे विषादका नाश करे, और यह युगल इस स्तोत्रका अच्छी तरह पाठ करनेवालोंको हर्ष प्रदान करे, इस स्तोत्रके रचयिता श्रीनन्दिषेणको अति आनन्द प्राप्त कराये और इसके सुननेवालों को भी सुख तथा समृद्धि देवे; तथा अन्तिम अभिलाषा यह है कि मेरे ( नन्दिषेणके) संयममें वृद्धि करे ।। ३६-३७-३८ ।।
मूल
३६६
( स्तवकी महिमा दिखलानेवाली अन्यकृत गाथाएँ ) [ गाहा ] पक्खिअ - चाउम्मासिअ - संवच्छरिए अवस्स - भणियव्वो । सोअव्वो सव्वेहिं, उवसग्ग-निवारणो एसो ||३९|| [३८]
शब्दार्थ
पक्खिअ - चाउम्मासिअ संवच्छरिए - पाक्षिक, चातुमसिक और सांवत्सरिक प्रतिक्रमण में
पक्खिअ - पाक्षिक । चाउम्मासिअ - चातुर्मासिक | संवच्छरिअ -- सांवत्सरिक ।
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अवस्स - अवश्य । भणियव्वो-पढ़ना चाहिये ।
सोअव्व-सुनना चाहिए । सह- सबको । उवसग्ग-निवारणो
निवारण करनेवाला | एसो - यह ।
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उपसर्गका
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