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तत्र-वहाँ स्थित।
| कुर्वन्तु-करो। श्रीऋषभादयः जिनवरा:- | वः-तुम्हारा।
श्रीऋषभ आदि जिनेश्वर। | मङ्गलं-मङ्गल, कल्याण । अर्थ-सङ्कलना
प्रसिद्ध अष्टापद पर्वत, गजाग्रपाद अथवा दशार्णकूट पर्वत, सम्मेतशिखर, शोभावान् गिरनार-पर्वत, प्रसिद्ध महिमावाला शत्रुजय गिरि, मांडवगढ़, वैभारगिरि, कनकाचल ( सुवर्णगिरि ), आबूपर्वत, श्रीचित्रकूट आदि तीर्थ हैं, वहाँ स्थित श्रीऋषभ आदि जिनेश्वर तुम्हारा कल्याण करें ।। ३३ ॥ सूत्र-परिचय. इस स्तोत्रका मूल नाम 'चतुर्विंशति-जिन-नमस्कार' है, परन्तु यह प्रथमाक्षरोंके आधारपर 'सकलाहत्-स्तोत्र' के नामसे भी प्रसिद्ध है। कुछ लोग इसे बृहच्चैत्यवन्दनके नामसे पहिचानते हैं, क्यों कि पाक्षिक चातुर्मासिक और सांवत्सरिक प्रतिक्रमणके समय बड़ा चैत्यवन्दन करने में इसका उपयोग होता है। - इस स्तोत्रके २८, २९, ३०, ३२ और ३३ वें श्लोकके अतिरिक्त सभी श्लोक कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्य रचित हैं ।
इस स्तोत्रमें चौबीस जिनेश्वरोंकी स्तुति करते हुए जो उपमाएँ दी गयी हैं, वे अत्यन्त मनोहर हैं और वे जैनधर्म के महत्त्वपूर्ण विषयोंका वास्तविक निदर्शन कराती हैं ।
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