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भुविज-मनुष्य । दिविज-देवता। उवणमे-समीपमें जाकर नमन . महिय-पूजित ।
करता हूँ, चरणोंकी सेवा सययं-निरन्तर ।
करता हूँ ! अर्थ-सङ्कलना___ मैं भी विषाद और हर्षको उत्पन्न करनेवाले, अज्ञानसे रहित, ( जन्म ), जरा और मृत्युसे निवृत्त; देव, असुरकुमार, सुपर्णकुमार, नागकुमार आदिके इन्द्रोंसे अच्छी तरह नमस्कार किये हुए; सुनयोंका प्रतिपादन करने में अतिकुशल; सर्व-प्रकारके भय और उपसर्गोंको दूर करनेवाले तथा मनुष्य और देवोंसे पूजित श्रीअजितनाथका शरण स्वीकृत कर उनके चरणोंकी सेवा करता हूँ॥ ७ ॥ मूल
( दूसरे मुक्तकसे श्रीशान्तिनाथकी स्तुति ) तं च जिणुत्तममुत्तम-नित्तम-सत्त-धरं, अज्जव-मदव-खंति-विमत्ति-समाहि-निर्हि । संतिकरं पणमामि दमुत्तम-तित्थयरं, संतिमुणी ! मम संति-समाहि-वरं दिशउ ॥८॥
-सोवाणयं ॥ शब्दार्थतं-उन ।
श्रेष्ठ और निर्दोष पराक्रमको
धारण करनेवाले। च-और।
उत्तम-श्रेष्ठ । नित्तम-निर्मल, जिणुत्तम-जिनोत्तमको।
निर्दोष । सत्त- पराक्रम । उत्तम-नित्तम-सत्त-धरं
धर-धारण करनेवाले
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