________________
३२२
अर्थ-सङ्कलना
श्रीजिनेश्वरदेवके चैत्योंको मैं भावपूर्वक नमन करता हूँ, जो अशाश्वत और शाश्वतरूपमें पृथ्वीतलपर, भवनपतियोंके श्रेष्ठ निवासस्थानपर स्थित हैं, इस मनुष्य लोकमें मनुष्योंद्वारा कराये हुए हैं और देव तथा राजाओंसे एवं देवराज-इन्द्रसे पूजित हैं ।। ३० ।।
मूल
[ अनुष्टुप् ] सर्वेषां वेधसामाघमादिमं परमेष्ठिनाम् । देवाधिदेवं सर्वज्ञ, श्रीवीरं प्रणिदध्महे ॥ ३१ ॥
शब्दार्थ
सर्वेषाम्-सब ।
देवाधिदेव-देवोंके भी देव । वेधसाम्-ज्ञाताओंमें । सर्वज्ञ-सर्वज्ञ। आद्यम्-श्रेष्ठ ।
श्रीवीरं-श्रीमहावीर स्वामीका । आदिम-प्रथम, प्रथम स्थानपर , विराजित होनेवाले।
प्रणिदध्महे-उपासना करते हैं, परमेष्ठिनाम्-परमेष्ठियोंमें ।
हम ध्यान करते हैं।
अर्थ-सङ्कलना
सर्व ज्ञाताओंमें श्रेष्ठ, परमेष्ठियोंमें प्रथम स्थानपर विराजित होनेवाले, देवोंके भी देव और सर्वज्ञ ऐसे श्रीमहावीर स्वामीका हम ध्यान करते हैं ॥ ३१ ॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org