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मूल
सुरासुर-नराधीश-मयूर-नव-वारिदम् । कर्मगुन्मूलने हस्ति-मल्लं मल्लिमभिष्टुमः ॥२१॥
शब्दार्थ
सुरासुर - नराधीश - मयूर - को मूलसे उखाड़नेके लिये ।
नव-वारिदम्-सुरों, असुरों कर्म-ज्ञानावरणादि। द्रु-वृक्ष । और मनुष्योंके अधिपतिरूप । उन्मूलन-मूलसे उखाड़ना। मयूरोंके लिये नवीन मेघ-समान। हस्ति-मल्लं-ऐरावण हाथोके अधीश-अधिपति । नव- समान। हस्ति-हाथी मल्ल-श्रेष्ठ ।
नवीन । वारिद-मेघ। मल्लिम्-श्रीमल्लिनाथकी। कर्मद्रु-उन्मूलने-कर्मरूपी वृक्ष- । अभिष्टुमः-स्तुति करते हैं । अर्थ-सङ्कलना
सुरों, असुरों और मनुष्योंके अधिपतिरूप मयूरोंके लिये नवीन मेघ-समान तथा कर्मरूपी वृक्षको मूलसे उखाड़नेके लिये ऐरावण हाथी-समान श्रीमल्लिनाथकी हम स्तुति करते हैं ।। २१ ॥
मूल
जगन्महामोह-निद्रा-प्रत्यूष-समयोपमम् ।
मुनिसुव्रतनाथस्य, देशना-वचनं स्तुमः ॥२२॥ शब्दार्थजगन्महामोह - निद्रा - प्रत्यूष- जगत्-संसार, संसारके
समयोपमम्-संसारके प्राणि- प्राणी। महामोद-प्रबल मोहनीय योंकी महामोहरूपी निद्रा उड़ा- कर्मका उदय । प्रत्यूष-समयनेके लिये प्रातःकाल जैसे । । प्रातःकाल । उपम-सदृश।
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