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शब्दार्थविमलस्वामिनः - श्रीविमलनाथ ! जयन्ति-जयको प्राप्त हो रही है। प्रभुको।
त्रिजगत् - चेतस् जल नैर्मल्यवाचः-वाणी।
हेतवः - त्रिभुवनमें स्थित कतक-क्षोद - सोदरा:-कतक - प्राणियोंके चित्तरूपी जलको फलके चूर्ण जैसी।
स्वच्छ करने में कारणरूप । कतक-निर्मली नामकी वनस्प- त्रिजगत् - त्रिभुवन । चेतस्ति । क्षोद - चूर्ण । सोदरा
चित्त । नैर्मल्य-निर्मलता, बहिन जैसी।
स्वच्छ । हेतु-कारण। अर्थ-सङ्कलना
त्रिभुवनमें स्थित प्राणियोंके चित्तरूपी जलको स्वच्छ करने में कारणरूप कतक-फलके चूर्ण जैसी श्रीविमलनाथ प्रभुकी वाणी जयको प्राप्त हो रही है ॥ १५ ।। मूल
स्वयम्भूरमण-स्पी, करुणारस-बारिणा ।
अनन्तजिदनन्तां वः, प्रयच्छतु सुख-श्रियम् ॥१६॥ शब्दार्थस्वयम्भूरमणस्पर्धी - स्वयम्भू
। . करुणारस-दयारूपी (रस)।
वारि-जल। रमण समुद्र की स्पर्धा करनेवाले।
| अनन्तजिद-श्रीअनन्तनाथ प्रभु । स्वयम्भूरमण – अन्तिम समुद्र ।
अनन्तां-अनन्त । स्पद्धिन्-स्पर्धा करनेवाला । | वः-तुम्हारे लिये । करुणारस - वारिणा -- दयारूपो | प्रयच्छतु-प्रदान करें। जलसे।
सुख-श्रियम्-सुख-सम्पत्ति
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