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२२८ के ऐसे वचन सुनकर आर्य रक्षित तोसलिपुत्र आचार्य के पास गये और उक्त अध्ययनको योग्यता प्राप्त करनेके लिये जैन दीक्षा ग्रहण की। गुरुके समीप जितना दृष्टिवाद था; वह सब पढ़ लिया; फिर वज्रस्वामोके पास गये और नवपर्वका अभ्यास किया। कुछ काल पश्चात् माता-पिता आदि सारे कुटुम्बको प्रतिबोध कर दीक्षा दी। जैन श्रुतज्ञानके द्रव्यानुयोग, गणितानुयोग, चरणकरणानुयोग और धर्मकथानुयोग ऐसे चार विभाग इनके द्वारा हुए हैं।
४० उदायन राजर्षि :-ये वीतभय नगरीके राजा थे। अपने भानजे केशीको राजगद्दी देकर इन्होंने दीक्षा ग्रहण की थी। इधर-उधर विहार करते-करते पुनः जब वीतभय नगरीमें आये, तब राजाके मन्त्रीद्वारा इनपर विष-प्रयोग हुआ। यद्यपि उस समय तो ये दैव-सहायसे बच गये; किन्तु बादमें विष-प्रयोग सफल हुआ। अपने को जहर दिया गया है ऐसा जानते हुए भी अन्ततक शुभ ध्यानमें रहे, और मरकर स्वर्गमें गये ।
४१ मनक:-श्रीशय्यम्भवसूरिके पुत्र और शिष्य । इनकी आयु अल्प थी, इस कारण साधुधर्मका शीघ्र ज्ञान करानेके लिए सूरिजीने सिद्धान्तोंका साररूप दशवकालिक नामका सूत्र बनाया। इस सूत्रका अभ्यासकर छः मासतक चारित्रका पालनकर स्वर्गमें गये ।
४२ कालकाचार्य (१):-तुरिमणि नगरीमें कालक नामके एक ब्राह्मण रहते थे। उनकी बहिनका नाम भद्रा था तथा भद्राके भी एक पुत्र था, जिसका नाम दत्त था। कालकने दीक्षा ली थी। एवं दत्त महान् उद्धत और सातों व्यसनोंमें पारङ्गत था, धीरे धीरे उसने जितशत्रु राजासे राज्य छीन लिया और उस राज्यका अधिपति बन बैठा । फिर उसने यज्ञ आरम्भ किया, जिसमें अनेक जीवोंका संहार होने लगा।
एक समय कालकाचार्य ( संसारी अवस्थाके उसके मामा ) फिरतेफिरते वहाँ आये तब दत्तने उनसे यज्ञका फल पूछा। तब कालकाचार्यने
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