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[ सिलोगो] जहा विसं कुट्ठ-गयं, मंत-मूल-विसारया । विज्जा हणंति मंतेहिं, तो तं हवइ निव्विसं ॥३८॥ एवं अट्टविहं कम्मं, राग-दोस-समज्जिअं ।
आलोअंतो अ निदंतो, खिप्पं हणइ सुसावओ ॥३९॥ शब्दार्थजहा-जैसे।
निव्विसं-निविष, विष-रहित । विसं-विषको, जहरको। एवं-वैसे ही। कुट्ठ-गयं-कोष्ठमें गए हुए, पेटमैं अट्टविहं-आठ प्रकारके । गये हुये।
कम्म-कर्मको। मंत-मूल-विसारया-मन्त्र और राग-दोस-समज्जिअं-राग और मूलमें विशारद, मन्त्र और द्वेषसे उपाजित ।
जड़ी-बूटीके निष्णात । आलोअंतो - आलोचना करता विज्जा-वैद्य ।
हुआ। हणंति-नष्ट करते हैं, उतारते हैं। अ-और। मंतेहि-मन्त्रों से।
निदंतो-निन्दा करता हुआ । तो-उससे ।
खिप्प-शीघ्र । तं-वह।
हणइ-नष्ट करता है। हवइ-होता है।
सुसावओ-सुश्रावक । अर्थ-सङ्कलना
जैसे पेट में गये हुए जहरको मन्त्र और जड़ी-बूटी के निष्णात वैद्य मन्त्रों से उतारते हैं और उससे वह विष-रहित होता है; वैसे ही
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