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[ औपच्छन्दसिक ]x येषां विकचारविन्द-राज्या, ज्यायः-क्रम-कमलावलिं दधत्या। सदृशैरिति सङ्गतं प्रशस्यं, कथितं सन्तु शिवाय ते जिनेन्द्राः॥२॥
[वंशस्थ ] कषाय-तापार्दित-जन्तु-निवृति, करोति यो जैनमुखाम्बुदोद्गतः । स शुक्र-मासोद्भव-वृष्टि-सन्निभो, दधातु तुष्टिं मयि विस्तरो गिराम् ॥३॥
शब्दार्थइच्छामो-चाहते हैं।
कर्मणा-कर्म के साथ, कर्मवैरीके अणुट्टि-अनुशासन, आज्ञा । साथ । नमो-नमस्कार हो।
तज्जयावाप्तमोक्षाय - उस खमासमणाणं-पूज्य क्षमा- ( कर्म के जयद्वारा मोक्ष श्रमणोंको।
प्राप्त करनेवालेको। . नमोऽर्हत्०-पूर्ववत्०
परोक्षाय-परोक्ष, अगम्य । नमः अस्तु-नमस्कार हो । कुतीथिनाम्-कुतीथिकोंके लिये, वर्धमानाय-श्रीवर्धमानके लिये, मिथ्यात्वियोंके लिये । ___ श्रीमहावीरप्रभुको।
येषां-जिनकी। स्पर्धमानाय-जीतनेकी स्पर्धा विकचारविन्द-राज्या.-विक___ करते हुए।
सित कमलकी पङ्क्तिने । x औपच्छन्दसिक छन्द वैतालिकका ही एक भेद है, परन्तु इसमें १६ + १८, १६ + १८ मात्राएँ होती हैं, अर्थात् वैतालिकसे इसमें दो मात्राएँ अधिक होती हैं।
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