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शीलाङ्ग - रथ
यतिधर्म दस प्रकारका है : – (१) क्षमा, (२) मार्दव, (३) आर्जव, (४) मुक्ति, (५) तप, (६) संयम, (७) सत्य, (८) शौच, (९) अकिञ्चनत्व और (१०) ब्रह्मचर्य, इसलिये सबसे नीचेके कोष्ठक में यह बतलाया है । यतिको (१) पृथ्वीकाय - समारम्भ, (२) अपकाय - समारम्भ, (३) तेजस्काय-समारम्भ, (४) वायुकाय - समारम्भ, (५) वनस्पतिकाय - समारम्भ (६) द्वीन्द्रिय- समारम्भ, (७) त्रीन्द्रिय- समारम्भ, (८) चतुरिन्द्रिय-समारम्भ, ( ९ ) पञ्चेन्द्रिय समारम्भ और (१०) अजीव - समारम्भकी जयणा करनी चाहिए, अतः दूसरे कोष्ठक में यह बतलाया है । यह यतिधर्मयुक्त जयणा पाँच इन्द्रिय जयपूर्वक की जाती है, इसलिये तीसरे कोष्ठक में पाँच इन्द्रियोंके नाम दिखाये हैं । अर्थात् शीलके कुल भेद ५०० हुए ।
इस भेदको आहार, भय, मैथुन और परिग्रह इन चार संज्ञाओंसे मनोयोग, वचनयोग और काययोग इन तीन योगोंसे और करना नहीं, कराना नहीं और करते हुएका अनुमोदन करना नहीं, इन तीन करणोंसे गुणन करनेपर अठारह हजार शीलाङ्ग होते हैं ।
१० × १० × ५ × ४ × ३ × ३ = १८०००
४१ सप्तति -शत - जिनवन्दनम् [ 'वरकनक' - स्तुति ]
मूल
[ गाहा ]
वरकनक - शङ्ख - विद्रुम- मरकत - घन - सन्निभं विगत- मोहम् । सप्ततिशतं जिनानां सर्वामर - पूजितं वन्दे ॥१॥
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