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अर्थ- सङ्कलना
भरत, ऐरावत और महाविदेह क्षेत्र में स्थित जो कोई भी साधु मन, वचन और काया से पाप-प्रवृत्ति करते नहीं, कराते नहीं, और करते हुए का अनुमोदन भी करते नहीं, उन सबको मैं नमन करता हूँ ।। ४५ ।।
मूल
चिर - संचिअ - पाव - पणासणीइ भव-सय- सहस्स - महणीए । चउवीस - जिण - विणिग्गय-कहाइ बोलंतु मे दिअहा ||४६ ॥ शब्दार्थ
१५५
चिर-संचिअ - पाव-पणासणीइदीर्घकाल से सचित पापोंका नाश करनेवाली ।
चिर- दीर्घकाल | संचिअ - उपाजित | पात्र - पाप । पणासणीइ-नाश करनेवाली । भव-सय सहस्स - महणीएलाखों भवका मथन करनेवाली, लाखों भवका अन्त करनेवाली भव-संसार । सय-सहस्स– सौ हजार, लाख | महणीए मथन करनेवाली, नाश
करनेवाली ।
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चउवीस - जिण - विणिग्गयकहाइ-चौबीसों जिनेश्वरोंके मुखसे निकली हुई कथाओंसे ।
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चउवोस - चौबीस | जिण-जिनेश्वर । विणिग्गय - मुखसे निकली हुई | कहाइ-कथाओसे, धर्मकथाओंके स्वाध्यायसे ।
अर्थ-सङ्कलना
दीर्घकाल से सञ्चित पापोंका नाश करनेवाली, लाखों भवका
बोलंतु - बीतें, व्यतीत हों ।
मे-मेरे |
दिअहा - दिवस ।
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