________________
१४७
मणसा माणसिअस्सा-मनके । सव्वस्स-सर्व ।
अशुभ प्रवर्तनको शुभ मनो- वयाइआरस्स - व्रतोंके अतियोग से।
चारोंका। अर्थ-सङ्कलना
कायाके अशुभ प्रवर्तनको शुभ काययोगसे, वचनके अशुभ प्रवर्तनको शुभ वचनयोगसे, मनके अशुभ प्रवर्तनको शुभ मनोयोगसे, इस प्रकार सर्व-व्रतोंके अतिचारोंका प्रतिक्रमण करता हूँ। ३४ ।।
वंदण-वय-सिक्खा-गारवेसुसण्णा--कसाय--दंडेसु । गुत्तीसु अ समिईसु अ, जो अइआरो अतं निंदे ॥३५॥
शब्दार्थ
वंदण-वय-सिक्खा-गारवेसु- निदे-निन्दा करता हूँ।
वन्दन; व्रत, शिक्षा और वन्दन दो प्रकारके हैं:-चैत्य
गारव (अभिमान) के विषयमें। वन्दन और गुरु-वन्दन । सण्णा-कसाय--दंडेसु--संज्ञा, व्रत बारह हैं :-स्थूल
कषाय और दण्डके विषयमें। प्राणातिपात-विरमण - व्रत गुत्तीसु-गुप्तिके विषयमें ।
आदि । शिक्षा दो प्रकार अ-और।
की है :--ग्रहण और आसेसमिईसु-समितिके विषयमें ।
वना । सूत्र और अर्थ अ-और।
ग्रहण करना ये ग्रहण शिक्षा जो-जो।
और कर्तव्योंका पालन अइआरो-अतिचार ।
करना ये आसेवनाशिक्षा । अ-तथा।
गारव तीन हैं:-रसगारव तं-उसकी।
अर्थात् मधुर खाने-पीनेका
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org