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नियमसार
नरनारकतिर्यक्सुरा: पर्यायास्ते विभावा इति भणिताः।
कर्मोपाधिविवर्जितपर्यायास्ते स्वभावा इति भणिताः ।।१५।। स्वभावविभावपर्यायसंक्षेपोक्तिरियम् । तत्र स्वभावविभावपर्यायाणां मध्ये स्वभावपर्यायस्तावत् द्विप्रकारेणोच्यते । कारणशुद्धपर्याय: कार्यशुद्धपर्यायश्चेति । इह हि सहजशुद्धनिश्चयेन
अनाद्यनिधनामूर्तातीन्द्रियस्वभावशुद्धसहजज्ञानसहजदर्शनसहजचारित्रसहजपरमवीतरागसुखात्मकशुद्धान्तस्तत्त्वस्वरूपस्वभावानन्तचतुष्टयस्वरूपेण सहाञ्चितपंचमभावपरिणतिरेव कारणशुद्धपर्याय इत्यर्थः । साद्यनिधनामूर्तातींद्रियस्वभावशुद्धसद्भूतव्यवहारेण केवलज्ञानकेवलदर्शनकेवलसुखकेवलशक्तियुक्तफलरूपानंतचतुष्टयेन सार्धं परमोत्कृष्टक्षायिकभावस्य शुद्धपरिणतिरेव कार्यशुद्धपर्यायश्च । अथवा पूर्वसूत्रोपात्तसूक्ष्मऋजुसूत्रनयाभिप्रायेण षड्द्रव्यसाधारणाः सूक्ष्मास्ते हि अर्थपर्यायाः शुद्धा इति बोद्धव्याः । उक्तः समासतः शुद्धपर्यायविकल्पः।
१४वीं गाथा की दूसरी पंक्ति से पर्यायों की चर्चा आरंभ हुई है; अब इस १५वीं गाथा में उसी बात को आगे बढ़ाते हैं। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्र
(हरिगीत ) नर नारकी तिर्यंच सुर पर्यय विभाव कही गईं।
निरपेक्ष कर्मोपधि सुध पर्यय स्वभाव कही गई||१५|| नर, नारक, तिर्यंच और देव ह ये पर्याय विभाव पर्यायें कही गई हैं और कर्मोपाधि निरपेक्ष पर्यायें स्वभाव पर्यायें कही गयी हैं।
इस गाथा का भाव टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्न
“यह स्वभाव पर्यायों और विभाव पर्यायों का संक्षिप्त कथन है। इन स्वभाव और विभाव पर्यायों में कारणशुद्धपर्याय और कार्यशुद्धपर्याय के भेद से स्वभावपर्याय दो प्रकार की कही गई है। सहजशुद्धनिश्चयनय से अनादि-अनंत, अमूर्त, अतीन्द्रियस्वभावी, शुद्ध, सहजज्ञान, सहजदर्शन, सहजचारित्र, सहज परमवीतरागसुखात्मक शुद्ध अन्त:तत्त्व-स्वरूप एवं स्वभाव अनन्तचतुष्टयस्वरूप के साथ रहने वाली पूजित पंचमभाव परिणति ही कारणशुद्धपर्याय है ह ऐसा अर्थ है।
और सादि-अनंत, अमूर्त, अतीन्द्रियस्वभावी शुद्धसद्भूतव्यवहार-नय से केवलज्ञान, केवलदर्शन, केवलसुख के साथ तन्मयरूप से रहने वाली परमोत्कृष्ट क्षायिकभाव की शुद्धपरिणति ही कार्यशुद्धपर्याय है। अथवा पूर्वोल्लिखित गाथासूत्र में प्रतिपादित ऋजुसूत्रनय के अभिप्राय से छह द्रव्यों में सामान्यरूप से पाईं जानेवाली सूक्ष्म अर्थ-पर्यायें शुद्ध हैं ह्न ऐसा जानना चाहिए।