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नियमसार आगमप्रामाण्यादभ्युपगम्योऽपि च षड्डानिवृद्धिविकल्पयुतः । अनंतभागवृद्धिः असंख्यातभागवृद्धिः सख्यातभागवृद्धिः संख्यातगुणवृद्धिः असंख्यातगुणवृद्धिः अनन्तगुणवृद्धिः, तथा हानिश्च नीयते । अशुद्धपर्यायो नरनारकादिव्यंजनपर्याय इति।
(मालिनी) अथ सति परभावे शुद्धमात्मानमेकं ।
सहजगुणमणीनामाकरं पूर्णबोधम् ।। भजति निशितबुद्धिर्यः पुमान् शुद्धदृष्टिः।।
स भवति परमश्रीकामिनीकामरूपः ॥२४।। इति परगुणपर्यायेषु सत्सूत्तमानां।
हृदयसरसिजाते राजते कारणात्मा ।। सपदि समयसारं तं परं ब्रह्मरूपं ।
भज भजसि निजोत्थं भव्यशार्दूल स त्वम् ।।२५।। १. अनन्तभागवृद्धि, २. असंख्यातभागवृद्धि, ३. संख्यातभागवृद्धि, ४. संख्यातगुणवृद्धि, ५. असंख्यातगुणवृद्धि और ६. अनंतगुणवृद्धि । इसीप्रकार छहप्रकार की हानि भी घटित कर लेना चाहिए। नर-नारकादि व्यंजनपर्यायें अशुद्धपर्यायें हैं।" __इसप्रकार इस गाथा में तीनप्रकार के विभावदर्शनों का स्वरूप स्पष्ट किया है। साथ में षट्गुणीहानिवृद्धिरूप शुद्ध अर्थपर्यायों और नर-नारकादिरूप अशुद्ध व्यंजनपर्यायों की चर्चा भी की गई है।।१४।।
१४वीं गाथा की टीका समाप्त करने के उपरान्त मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव ३ छन्द लिखते हैं; जिसमें पहले व दूसरे छन्द का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्न
(वीर) परभावों के होने पर भी परभावों से भिन्न जीव है। सहजगणों की मणियों का निधि है सम्पुरणशद्ध जीव यह|| ज्ञानानन्दी शुद्ध जीव को शुद्धदृष्टि से जो भजते हैं। वही पुरुष सुखमय अविनाशी मुक्तिसुंदरी को वरते हैं।।२४ ।। इसप्रकार गुणपर्यायों के होने पर भी कारण-आतम। गहराई से राजमान है श्रेष्ठनरों के हृदयकमल में|| स्वयं प्रतिष्ठित समयसारमय शुद्धातम को हे भव्योत्तम। अभी भज रहे अरे उसी को गहराई से भजो निरन्तर ||२५||