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उसका चितवन करके क्षुधा, तृषा, वेदना को सहन करने की प्रेरणा दी है। ३. मुनिराज ध्यान रूपी अग्नि से शीत वेदना को जीतते हैं । ४. आचार्य श्री ने अनेक प्रकार के चिन्तबन द्वारा मुनि परीवहीं को जीतते हैं । ५. इसका बहुत ही सुन्दर हृदयबाही वर्णन किया है । ६. कौनसे कर्म के उदय से कौनकौन सा परीषह होता है एवं कौन-कौन से गुणस्थान में कितने परोषह होते हैं इसका वर्णन किया । ७. प्राचार्य श्री ने मुनि को कर्मोदय से प्राप्त परीषहों को कर्म नाश करनेके लिये ध्यानादि द्वारा सहन करने की प्रेरणा दी है। ८. परीषहजय से लाभ एवं परीषह नहीं जीतने से हानि का बड़ा मुन्दर वर्णन किया
ऋद्धिया-१. सम्पूर्ण ऋद्धियां तपश्चरण की शुद्धता के प्रभाबसे प्रकट होतो है । २. तदनंतर ऋद्धियों के बुद्धि ऋद्धि आदि भाट भेद किये हैं। ३. बुद्धि ऋद्धि के १८, क्रिया ऋद्धि के २० (चारण ऋद्धि के भेद) विक्रिया ऋद्धि के ११. तप ऋद्धि के ७, बल ऋद्धि के ३, रस ऋद्धि के ६. क्षेत्रऋषि के २ इस प्रकार आचार्य श्री ने ८ ऋद्धियोंके भेदों का स्वरूप पूर्वक वर्णन किया । ४. जो मुनि त्रियोग की शुद्धता पूर्वक बिना किसी आकांक्षा के पाप रहित श्रेष्ठ तपश्चरण करते हैं उनके स्वत: ये ऋद्धियां प्रकट होता है । ५. जो मुनि दीक्षा धारण करके तपश्चरण नहीं करते उनके अनेक प्रकार के रोग होते हैं । ६. आचार्य श्री ने पुनः श्रेष्ठ तपश्चरण करने की प्रेरणा दी। ७. प्राचार्य श्री लिखते हैं हैं कि मूलाचार आदि अनेक शास्त्रों का सार लेकर मुनि के लिये इस सद ग्रन्थ की रचना को है।
यह ग्रन्थ श्रेष्ठ प्राचारों को दिखाने वाला दीपक है. अत: इस ग्रन्थ का मूलाचार प्रदीप नाम सार्थक है। इसप्रकार अन्त में भी अहेन्तादिक की वन्दना करके रत्नत्रय आदि पदकी श्रेष्ठ याचना को है। इस प्रकार पाठकगण आद्योपांत इस ग्रन्थ को पढ़कर स्वयं अनुभव करेंगे कि आचार्य को भर हन्तादिकके प्रति कितना बहुमाल था कि प्रत्येक अधिकार के आदि एवं अन्त में उनके गुणों का स्मरण पूर्वक नमस्कार किया। मुनि धर्म का सांगोपांग वर्णन किया । प्रत्येक प्रकरण का हृदयगामो वर्णन करके उसकी महत्ता दर्शाकर आत्मार्थी को उसके पालन की प्रेरणा दी है। यह प्राय मुनि एवं प्रावक धोनों को ही मात्मोत्थान में सहकारी है क्योंकि मुनि एवं श्रावक दोनों एक नदो के दो किनारे हैं। एक किनारे के नष्ट होने पर नदी अपने आप में नदी नहीं रहती है। उसी प्रकार प्रावक मुनि भी एक दूसरे के पूरक हैं। मुनि के अभाव में धावक को, मोक्षमार्ग को कौन बतायेगा । श्रावकों के अभाव में मुनि की साधना में निमित्तभूल पाहारादिक क्रिया भी निर्वाध रूप से इस काल में होन संहनन के कारण नहीं हो सकती। अत: पाठकों से अनुरोध है कि पुनः पुनः इस ग्रन्धराज का स्वाध्याय कार अपनी प्रात्म परिणति को निर्मल बनावें।
इत्यलम्! विशेष :---१. समयाभाव के कारण हमें इस ग्रन्थ को मूल प्रतियों की प्राप्ति नहीं होने से मूल श्लोकों का संशोधन नहीं हो सका। कई ग्लोक छूटे हुए हैं, कहीं अधूरे भी हैं । इस ग्रन्थ के
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