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जाता है। ३. आत्मार्थों को मोक्ष रूप एकट्य पद प्राप्त करने के लिये एकाव भावना का चितवन करना चाहिये।
(x) अन्यत्व भावना-१. जहां मरने पर शरीर साक्षात् भिन्न दिखाई देता है। २. स्त्री भादि समस्त कटुम्ब वर्ग भी भिन्न ही हैं, रत्नत्रय को छोड़कर कोई पदार्थ मेरा नहीं है। इसप्रकार मात्मा को अन्तरङ्ग में ही शरीर से भिन्न समझकर घिसवन करना चाहिये ।
(६) अशुधि भावना-१. नरकादि गप्ति में अशुचिमय शरीर को प्राप्त करता है तथा जो भोग स्त्रियों की अपवित्र मोनि से उत्पन्न हो तो भला ये भोग अशुचिमय क्यों नहीं होंगे । अतः विरक्त पुरुषों को अपवित्र शरीर से पवित्र मोक्ष को सिद्ध करना चाहिये ।।
आम ना411---1 अन अनुष्यों ने धर्म रूपी जहाज को छोड़ दिया है। २. वे निरंतरा कर्मों का पासव' करसे रहने से सैकड़ों दुःखों से भरे संसार समुद्र में सूबते हैं ।
(८) संवर भावना-१. कर्मों के आसय का निरोध करना ही सवर है । २. क्षमादि भावों से कषायादि दुर्भावों को रोकने का बड़ा सुन्दर वर्णन किया है।
18) निर्जरा भावमा-१. चारित्र रूपी गुण को धारण करनेसे तपश्चरण के द्वारा मोक्ष को देने वाली निर्जरा होती है। २. जिस प्रकार अग्नि के द्वारा स्वर्ण पाषाण युक्ति पूर्वक शुद्ध करने से शुद्ध हो जाता है उसी प्रकार तप रूपी अग्नि से संघर, निर्जरा करने वाला भव्य जीव अत्यन्त शुद्ध हो जाता है।
(१०) लोक भावना-१. आचार्य श्री ने लोक भावना का वर्णन करते हुए उध्वं, मध्य और अधोलोक का स्वरूप समझकर सम्यग्दर्शनादिक धारण कर शीघ्र मोह का नाश कर मोक्ष प्राप्त करने की प्रेरणा दी है।
(११) बोधि संभ-१. प्राचार्य श्री ने मनुष्य जन्म, आर्य क्षेत्र उसम कुलादि प्रतेक मोक्ष पुरुषार्थ की सामग्री को दुर्लभता बताई है। २. अन्त में सबसे दुर्लभ समाधिमरण है ऐसा कथन करके रत्नत्रय को धारण कर मोक्षादि का प्राप्त करना ही बोधि का फल कहा है।
(१२) धर्म भाषमा--१. धर्म की इच्छा रखने वाले को मुक्ति एवं मुक्ति को प्रदान करानेवाले धर्म को पालन करने की प्रेरणा दी है । २. आचार्य श्री ने बारह भावना की महिमा बताकर उसे सदा चिन्सवन करने की प्रेरणा दी है।
परोषठ-१. मुनिराज चारित्रमार्ग अथवा भोक्ष मार्ग से ध्युत न होने के लिये सदा परीषह सहन करते हैं । २. पारार्य श्री ने संसार में भ्रमण करते हुए पराधीमसावश ओ वेदना सहन की
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