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शील पालने की प्रेरणा दी है। ६. हिंसादिक के २१ भेद, अतिक्रमणादिक के ४ भेद, पृथ्वीकायादिक के १.. भेद, ब्रह्मचर्य विराधना के दस दोष, आलोचना के दस दोष इन सब हिंसादिक को परस्पर गुणा करने से मुनि के ८४ लाख उत्तरगुण होते हैं। ७. प्राचार्य श्री ने हिसादिक का स्वरूप बताकर इनके त्यागने की प्रेरणा दी है। 5. उत्तर गुणों की महिमा बताकर इनको पालने की प्रेरणा दी है। ६. दशधमं-ये मुनियों के लिये सुख के समूत्र एवं मुक्ति नगर गमन के लिये मार्ग में पाथेय हैं ।
उत्तम क्षमा--१. आचार्य श्री ने क्षमा का स्वरूप बताकर क्रोधादिक के निमित्त आने पर किस प्रकार का चिन्तवन कर एवं क्षमा धारण कर दुष्ट दुर्वचनादि को सहना चाहिये । २ कोई मारे तो भी मुनिराज किस प्रकार का चिन्तवन कर क्षमा धारण करते हैं । ३. मुनिराज विचार करते हैं कि मैंने पहले अनेक कष्ट सहन करके जो उपशमरूप परिणामोंका अभ्यास किया वह व्यर्थ हो ४. इसप्रकार क्रोध नहीं करने से अनेक गुण एवं क्रोध करने से हानियों का वर्णन प्रसिद्ध महापुरुषों का उदाहरण देकर किया एवं नित्य ही क्षमा धारण करने की प्रेरणा दी।
उसम माध-१. ज्ञान के आठ कारणों की उत्तमता प्राप्त होने पर भी कोमल योम को धारण कर मद का त्याग करना मार्दव धर्म है। २. मार्दव धर्म की महिमा बताकर उसे पालन करने की प्रेरणा दी है।
उत्तम प्रार्थव-१. सरल बुद्धि को धारण कर मन में जो कार्य जिस रूप से चिन्तयन किया, उमको उसी रूप से कहना एवं करना उत्तम मार्जव धर्म का लक्षण है। २. मन, वचन, काय की सरलता से अवती भोगभूमि के जीव स्वर्ग में एवं बिल्ली, मगरमच्छादि मायाचारी जीव दुर्गति में उत्पन्न होते हैं। ३. मायाचारी से उत्पन्न अनेक हानियों का वर्णन करके प्रार्जव धर्म धारण करने की प्रेरणा दी है।
सत्य प्रम-१. सिद्धान्त को जानने वाले मुमि तत्वों के अर्थ से सुशोभित यथार्थ, सारभूत वचन, भाषा समिति का अवलम्वन लेकर कहते हैं यह सत्य धर्म का लक्षण है।
शौध धर्म-१.जो मुनि इन्द्रियों के विषयों की आसक्ति त्यागकर मन में समस्त पदार्थों के प्रति निस्पृहता धारण करते हैं एवं लोभ को जीतकर शौच गुण को धारण करते हैं उन्हीं के शौच गुण होता है। २. लोभ चार प्रकार बताया है-(क) जीवित रहने का लोभ (ब) आरोग्य रहने का लोभ (ग) पञ्चेन्द्रिय का लोभ (घ) भोगोपभोग सामग्री का लोभ । इन लोभों को त्याग करने की प्रेरणा दी।
संयम धर्म-१. त्रियोग की शुद्धि पूर्वक ५ इन्द्रिय, एक मन का निरोध एवं षट् काय के जीवों की विराधना नहीं करते, वही जिनेन्द्र देव कथित संयम है । २. आचार्य श्री ने उपेक्षा संयम
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