________________
भावीचीभरणादि १७ भेदों का स्वरूप पूर्वक कथन करते हैं। ६. पार आराधना करने वाले को दुर्गति के कारण अणुभ मरण का त्याग करना चाहिये । ७. शिष्य के द्वारा देव दुर्गति का स्वरूप एवं उनमें जाने वाले जीवों का स्वरूप पूछने पर बहुत स्पष्ट शब्दों में वर्णन किया है । ८. कैसे प्राचरण करने वाले मुनि संसार में भटके हैं एवं कैसे आचरण बाले मुनि संसार से पार होते हैं उसका वर्णन किया । ६ निर्यापकाचार्य भपक को अनेक प्रकार से दुर्गति आदि का स्वरूप बताकर बाल-बाल मरण से विरक्त करके पंडित मरण को प्रेरणा देते हैं । १०. तदनन्तर सपक चार आराधना की शुद्धि को प्रारम्भ करता है। चार आराधना एवं क्षमादि गुणों को धारण कर काया एवं कषाय का सल्लेखना करता है।
११. समस्त गुणों का अाधार एवं सारभूत मात्मा का आप्रय लेकर समस्त दोषों की निंदा गर्दा करके ३३ आसादना को नहीं लगाने की प्रतिज्ञा करता है। १२. आचार्य भएक को उपवासादि तप के द्वारा शरीर को कुश करने की प्रेरणा देते हैं। १३. अन्नादि के त्याग का क्रम बताकर धारण करने योग्य १० प्रकार के मुण्डन के स्वरूप का वर्णन करते हैं। १४. मोक्षदायनी दीक्षा भी इन्हीं बस मुण्डन से सफल मानी जाती है । १५. क्षपक को नरकादिक दुःखों का एवं संसार के दुःखों का चितवन करना चाहिये । १६ क्षपक को प्रशस्त ध्यान की सिद्धि के लिये परमेष्ठी वाचक पदों का चितवन करने की औरणा दी है। १५. गादिक आने पर किस प्रकार चिन्तवन कर अपने मन को स्थिर रखता है इसका बहुत सुन्दर वर्णन किया है । १८. यद्यपि क्षपक निरीहवृत्ति का धारक होता है फिर भी महा लोभ के लिए उद्यम करता है । १६. एक उत्तमति, पञ्चमति के फल की याचना करता है । २०. इस प्रकार प्रात्मा का ध्यान पंच परमेष्ठी पाचक पदों का चिन्तवन एवं निर्यापकाचार्य के मुख से निकले मारभूत धर्म के अक्षरों को सुनते हुए प्रशस्त ध्यान पूर्वक प्राणों का त्याग करता है । २०. समाधि के फल का निर्देश कर असे धारण करने की प्रेरणा देते हैं । २१. अन्त में आराधना की महिमा बताकर आचार्य देव ने आराधना की प्राप्ति के लिये नमस्कार किया है।
म
ग्यारहवां अधिकार
१. प्राचार्य श्री ने १८८ श्लोकों द्वारा शील गुण एवं दस लक्षण धर्म का निरूपण किया है । २. प्रथम मंगलाचरण किया पश्चातु ३ योग, ३ करण, ४ संज्ञा, ५ इन्द्रियां, १० प्रकार के पृथ्वीकाय जोद मौर १० प्रकारके उत्तम क्षमादि धर्म, इन सब योगादिकको परस्परमें गुणा कर देने से १५,००० भेद शील के होते हैं । ३. आचार्य श्री ने सरल सुबोध भाषा में योगादि का स्वरूप बताकर इनके त्याग से ब्रह्मचर्य होता है 1 ४. शील पालन करने वालों का एक दिन जीना अच्छा परन्तु बिना शील के सैकड़ों, करोड़ों बर्ष जीना भी व्यर्थ है। ५. तदनन्तर अनेक प्रकार से शील की महिमा बतलाकर
[ ४ ]