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ए त संयम दामादे सेट पीकिये हैं एवं ३. उनके स्वरूप का कपन किया है।
४. सामायिक आदि के भेद से उत्कृष्ट संयम ५ प्रकार का है। ५. आचार्य श्री ने प्रत्येक का स्पष्ट वर्णन किया है । ६. संयम के विना तप, ध्यान एवं प्रतादिक सब व्यर्थ है।
उत्तम तम-पांचों इन्द्रियों के विषयों में अपनी समस्त इच्छामों का निरोध करना तप है ।
उत्सम त्याग-१. त्रियोगों से दोनों प्रकार के परिग्रहों में पूछा एवं ममत्वका त्याम कर देना त्याग है। २. ज्ञान दानादिक के भेद से त्याग के चार भेय किये हैं।
उत्तम प्राकिंचन धर्म-१. जो निस्पृह मुनि त्रियोग की शुद्धता पूर्वक शरीर, परिग्रह और इन्द्रियों के सुख में ममत्व का त्याग करना आकिंचन धर्म है।
उत्सम ब्रह्मचर्य धर्म-१. राग-द्वेष को त्याग करने वाले जो पुरुष अपने मनरूपी नेत्रों से समस्त स्त्रियों को माता के समान देखते हैं उनके सर्वोत्कृष्ट ब्रह्मचर्य होता है । इसप्रकार आचार्य श्री ने दस धर्मों की महिमा का वर्णन करके उसको धारण करने की प्रेरणा दी है।
बारहवां अधिकार १. आचार्य श्री ने २३१ श्लोकों में अनुप्रेक्षा, परीषह एवं ऋद्धियों का वर्णन किया है । प्रथम अनुप्रेक्षा के चिन्तवन करने वाले मुनिराज को नमस्कार रूप मङ्गमाचरण किया है।
(१) अनिस्य भावना-१. इन्द्र चक्रवत्ति प्रादि पद क्षणभंगुर हैं । २. चंचल स्त्री सांकल के समान बन्धन में डालने वाली है। ३. कुटुम्ब विडम्बना मात्र है। ४. पुत्र जाल के समान बांधने वाले हैं। ५. घर का निवास कारागार के समान है। ६. इस प्रकार अनेक प्रकार से जगत् को अनित्यता बताफर प्रारमार्थी को रत्नत्रय धारण कर अनिस्य शरीरादि से नित्य मोक्ष को सिद्ध कर लेने की प्रेरणा दी है।
(२) मशरण भावता-१. जीव को जब यम रूपी शत्रु पकड़ लेता है तब उससे बचाने वाला शरणभूत तीन लोक में कोई नहीं दिखाई देता । अतः परहन्तादिक ही शरणभूत है ऐसा जानकर उनकी शरण लेनी चाहिये ।
(a) संसार भावना--१. पञ्च परावर्तनका स्वरूप सरल भाषा में समझाया है । २. मिथ्यास्वादि अशुभ भावों से कर्मों का उदय झाता है। ३. उससे संसार में महान दुःखों को उठाता है। ४. इस प्रकार प्रात्मार्थी को रत्नत्रय द्वारा श्रीघ्र मोक्ष सिद्ध कर लेना चाहिये ।
(४) एकत्व भावना-१. जीव अकेला कर्म बन्ध करता है। अकेला ही सुख-दुःख को भोगता है। २. अनेक भोगोपभोग सामग्री से पोषित ये शरीर भी गोष के एक पेंच भी साफ नहीं
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