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फिर भी धैर्य बल को धारण करने वाले बेला, तेला. महिने दो महिने आदि के उपन्नास-को धारण करते हैं। ३. पारणे के दिन वृत्तिपरिसंख्यान तप धारण करते हैं 1 ४ नीरस आहार करते हैं। ५. शीत-उष्ण की बाधा को जीतते हैं। ६. अनेक प्रकार के योग धारण करते हैं। ७. परीषह सहने में रंचमात्र खेद नहीं करते हैं. इस प्रकार से घोर उग्र तप करते हैं. उनके तप शुद्धि होती है ।
(१०) ध्यान शुद्धि-१. पातं रौद्रध्यान का त्यागकर पर्वतों की गुफा में बैठकर एकाग्रचित से धर्म ध्यानादि धारण करते हैं। २. उनके कर्मरूपी वन को जलाने में ज्वाला के समान ध्यान शुद्धि होती है। ३. मन रूपो दुर्घर हाथी विषम वन में घूमता रहता है। इसको ध्यान रूपो अंकुश से वश करते हैं। ४. आचार्य श्री ने श्रेष्ठ ध्यान को एक नगर की उपमा देकर उसका सुन्दर वर्णन किया। ५. इस ध्यान रूपी नगर के स्वामी मुनि कसे बाणों से शत्रुओं को जीतते हैं। ६. कम शत्रुओं को जीतकर कैसा साम्राज्य प्राप्त करते हैं; इसका वर्णन किया। ७. आगे मुनि के श्रमण, साधु पादि नामों की सार्थकता का वर्णन किया। ८ अन्त में दस प्रकार की शुद्धियों की महिमा एवं फल को बताकर सम्पूर्ण भावनायें एवं आत्म शुद्धि की प्राप्ति की भावना की है।
नवा अधिकार १. प्राचार्य श्री ने १५२ श्लोकों द्वारा समयसार नामक नौवें अध्याय का कथन किया। २. प्रथम मंगलाचरण करके समस्त ग्रन्थों ( अधिकार ) एवं चार पाराधनाओं में सारभूल यहाँ समयसार की महिमा का कथन किया। ३. जो द्रव्यादिक शुद्धि का आश्रय करके सम्यग्दर्शन ज्ञान पूर्वक जो चारित्र धारण करने का प्रयत्न करता है वह मुनि शीघ्र मोक्ष प्राप्त करता है । ४. बिता चारित्र के कोई शुद्ध नहीं हो सकता । ५. पुनः मुनि को भिक्षावृत्ति धारण करने की, जितेन्द्रिय बनने को, लोक व्यवहार से दूर रहने आदि अनेक प्रकार की शिक्षा दी है। ६. ज्ञान, ध्यान और संयम का कार्य निर्देश करते हुए इन तीनों का संयोग हो मोक्ष का कारण है ऐसा निर्देश किया। ७. पुनः व्रतादिक के लिये सम्यग्दर्शन ही मूल है । ८, मुनिको ज्ञानको अपेक्षा चारित्रको प्रधान मानने की प्रेरणा दी है।
चार जिन फल्प-१. पूर्ण रूप से नग्नता धारण करना। २. वैराग्य को बढ़ाने वाला केशनींच करना। ३. संस्कारों से रहित शरीर में निर्ममता धारण करना। ४. प्रतिलेखन के लिये पोली धारण करना ये चार लिंग कल्प कहे हैं । ५. पुनः मयूर पिच्छ की पीछीके पांच गुणों का वर्णन किया है। ६. जो मुनि बिना शुद्ध किये पाहार ग्रहण कर लेता है उसको प्रायश्चित रूप पुनः दीक्षा देना चाहिये । ७. जो मुनि कीर्ति आदि के लिये मूल गुणों को भंग करता है उसके प्रभावकार आदि योग व्यर्थ है। ८. बिना शुद्ध आहार करने के अनेकों दोषों का वर्णन किया है । ६.जो अध:कम नामके दोष से दूषित पाहार करते हैं । उनके तपादिक व्यर्थ हैं। १०. जो मुनि पंच पापों से नहीं डरते एवं
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